शनिवार, 1 मई 2021

प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली - वैदिक कालीन शिक्षा 1(Ancient Indian Education System: Vedic Era 1)

प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली - वैदिक कालीन शिक्षा 1
Ancient Indian Education System:  Vedic Era 1



    प्राचीन काल में शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया गया था। भारत ‘विश्वगुरू‘ कहलाता था। विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा को प्रकाश स्त्रोत, अन्तर्दृष्टि, अन्र्तज्योति, ज्ञानचक्षु और तीसरा नेत्र आदि उपमाओं से विभूषित किया है। उस युग की यह मान्यता थी कि जिस प्रकार अन्धकार को दूर करने का साधन प्रकाश है, उसी प्रकार व्यक्ति के सब संशयों और भ्रमों को दूर करने का साधन शिक्षा है। प्राचीन काल में इस बात पर बल दिया गया कि शिक्षा व्यक्ति को जीवन का यथार्थ दर्शन कराती है तथा इस योग्य बनाती है कि वह भवसागर की बाधाओं को पार करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर सके जों कि मानव जीवन का चरम लक्ष्य हैं।
 

आधुनिक भारतीय शिक्षा की उत्पत्ति और विकास
5.6 हजार वर्ष पूर्व प्राचीन नगरीय सभ्यताओं का विकास हुआ।
हड़प्पा/सिन्धु घाटी सभ्यता

  • इन सभ्यताओं के लोग लिखने की कला जानते थे।
  • इन सभ्यताओं की मुद्राओं पर मनुष्य और विभिन्न पशुओं के चित्र पाये गये। 
  • लेख की इस लिपि को चित्र लिपि कहा गया।
  • यह लिपि दायी से बायी लिखी जाती थी।
  • इससे यह पता चलता है कि वैदिक काल पहले से ही शिक्षा का चलन रहा है।

 

आर्य सभ्यता

  • नगरीय सभ्यताओं के अन्त के पश्चात् आर्य सभ्यता का जन्म हुआ 
  • इस सभ्यता में वेदों के अनुसार शिक्षा पर बल दिया गया।
  • ऋग्वेद में इन्द्र को नगरों का नाश करने वाला बताया है।

   नगरों का निर्माण नगरीय सभ्यताओं जैसे हड़प्पा के लोंगों के ज्ञान को बताता है।

ऋग्वेद में - कुछ लोग शिक्षा की जानकारी रखते है 

  • सुनियोजित नगर
  • विकास व्यवस्था 
  • निपुण नागरिक प्रबंधन
  • सुन्दर व उपयोगी कला
  • विकसित धर्म में लोगों का विश्वास
  • पूजा के ढंग 
  • धार्मिक रीतियाँ
  • ये सभी आज के समाज के अंग भी है।
  • शिव व पृथ्वी माता की पूजा, पीपल पूजा, मूर्ति पूजा आदि हिन्दू धर्म का वर्तमान का अभिन्न अंग हैं।

भारतीय शिक्षा का इतिहास
(1) वैदिक कालः- (2500 ई.पू. से 500 ई. तक)
1. वेदों का निर्माण।
2. वेद आधारित शिक्षा व्यवस्था।
3. वैदिक, आरण्यक, उपनिषद् आदि ग्रन्थों की रचना।
 
(2) बुद्ध कालः- (500 ई.पू. से 1200 ई. तक)
1. बौद्ध धर्म की उत्पत्ति।
    2. अर्वाचीन प्रकार की शिक्षा व्यवस्था।
 
(3) मध्य कालः- (1200 ई.पू. से 1757 ई. तक)
1. 12वीें शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक।
2. मुसलमानों ने शासन किया।
3. उन्हीं की संस्कृति के आधार पर शिक्षा।
 
(4) ब्रिटिश कालः-
1. 18वीं शताब्दी से 1947 ई.,
2. पाश्चात्य आधारित शिक्षा।
 
(5) स्वतंत्रता पश्चात् भारतीय शिक्षा।




    भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिमकता पर आधारित थी। शिक्षा, मुक्ति एवं आत्मबोध के साधन के रूप में थी। यह व्यक्ति के लिये नहीं बल्कि धर्म के लिये थी। भारत की शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परम्परा विश्व इतिहास में प्राचीनतम है। 
डॉ॰ अल्टेकर के अनुसार,
वैदिक युग से लेकर अब तक भारतवासियों के लिये शिक्षा का अभिप्राय यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का स्रोत है तथा जीवन के विभिन्न कार्यों में यह हमारा मार्ग आलोकित करती है।

 

  • प्राचीन काल में शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया गया था। 
  • भारत विश्वगुरु कहलाता था।
  • विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा को प्रकाशस्रोत, अन्तर्दृष्टि, अन्तर्ज्योति, ज्ञानचक्षु और तीसरा नेत्र आदि उपमाओं से विभूषित किया है। 
  • उस युग की यह मान्यता थी कि जिस प्रकार अन्धकार को दूर करने का साधन प्रकाश है, उसी परकार व्यक्ति के सब संशयों और भ्रमों को दूर करने का साधन शिक्षा है। 
  • प्राचीन काल में इस बात पर बल दिया गया कि शिक्षा व्यक्ति को जीवन का यथार्थ दर्शन कराती है। तथा इस योग्य बनाती है कि वह भवसागर की बाधाओं को पार करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर सके जो कि मानव जीवन का चरम लक्ष्य है।
  • प्राचीन भारत की शिक्षा का प्रारंभिक रूप हम ऋग्वेद में देखते हैं। ऋग्वेद युग की शिक्षा का उद्देश्य था - तत्वसाक्षात्कार
  • ब्रह्मचर्य, तप और योगाभ्यास से तत्व का साक्षात्कार करनेवाले ऋषि, विप्र, वैघस, कवि, मुनि, मनीषी के नामों से प्रसिद्ध थे। 
  • साक्षात्कृत तत्वों का मंत्रों के आकार में संग्रह होता गया वैदिक संहिताओं में, जिनका स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन वैदिक शिक्षा रही।

 

 

  • विद्यालय ‘गुरुकुल‘, ‘आचार्यकुल‘, ‘गुरुगृह‘ इत्यादि नामों से विदित थे। 
  • आचार्य के कुल में निवास करता हुआ, गुरुसेवा और ब्रह्मचर्य व्रतधारी विद्यार्थी षडंग वेद का अध्ययन करता था। 
  • शिक्षक को ‘आचार्य‘ और ‘गुरु‘ कहा जाता था और विद्यार्थी को ब्रह्मचारी, व्रतधारी, अंतेवासी, आचार्यकुलवासी। मंत्रों के द्रष्टा अर्थात्‌ साक्षात्कार करनेवाले ऋषि अपनी अनुभूति और उसकी व्याख्या और प्रयोग को ब्रह्मचारी, अंतेवासी को देते थे। 
  • गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करनेवाले व्रतचारी श्रुतर्षि होते थे। वेदमंत्र कंठस्थ किए जाते थे।

 

  • आचार्य स्वर से मंत्रों का परायण करते और ब्रह्मचारी उनको उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे। इसके पश्चात्‌ा् अर्थबोध कराया जाता था।
  • ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था।
  • स्त्रियों के लिए भी आवश्यक समझा जाता था। 
  • आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करने वाले विद्यार्थी को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते थे। ऐसी विद्यार्थिनी ब्रह्मवादिनी कही जाती थी।
  • वेद, शिक्षा, कल्प, व्यकरण, छंद, ज्योतिष और निरुक्त उनके पाठ्य होते थे। पाँच वर्ष के बालक की प्राथमिक शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी। 
  • गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी।
  • 8 वें वर्ष में ब्राह्मण बालक के, 11 वें वर्ष में क्षत्रिय के और 12 वें वर्ष में वैश्य के उपनयन की विधि थी। 
  • अधिक से अधिक यह 16, 22 और 24 वर्षों की अवस्था में होता था। 
  • ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्थी गुरुगृह में 12 वर्ष वेदाध्ययन करते थे। तब वे स्नातक कहलाते थे। 
  • समावर्तन के अवसर पर गुरुदक्षिणा देन की प्रथा थी। समावर्तन के पश्चात्‌ा् भी स्नातक स्वाध्याय करते रहते थे। 
  • नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते थे। समावर्तन के सम ब्रह्मचारी दंड, कमंडलु, मेखला, आदि को त्याग देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत में जिन जिन वस्तुओं का निषेध था अब से उनका उपयोग हो सकता था।

  • प्राचीन भारत में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी और न कोई उपाधि ही दी जाती थी।
  •  
  • ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे तथा बाद विवाद और शास्त्रार्थ में संम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।

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