वैदिक कालीन शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्य
इस शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य उस व्यक्ति को अज्ञान से मुक्त कराकर ज्ञान की प्राप्ति करवाना था। वह विवेकपूर्ण विद्या एवं अविद्या का भेद कर सके। सत्य एवं मिथ्या का अन्तर समझ सके और अपने आप में निहित अनन्त ज्ञान व शक्ति को पहचान सके।
- वैदिक कालीन समाज मुख्य रूप से परा तथा अपरा विद्या के प्रभाव में बटा हुआ था।
- परा विद्या के लिए अलौकिक विषयों का अध्ययन करना होता था। जिनकी सहायता से ज्ञानए कर्म तथा उपासना के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती थी।
- अपरा विद्या के लिए लौकिक विषयों का अध्ययन किया जाता था जिसकी सहायता से सामाजिक व्यवस्था का संचालन किया जाता था।
- नैतिक चरित्र का निर्माण करना।
- पवित्रता तथा धार्मिकता का विकास।
- व्यक्तित्व का विकास।
- संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार करना।
अध्यापक/गुरू/आचार्य
- भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव का था।
- उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था।
- आचार्य पारंगत विद्वान्ा, सदाचारी, क्रियावान्ा, निःस्पृह, निरभिमान होते थे और विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते थे।
- अध्यापक, छात्रों का चरित्र निर्माण, उनके लिए भोजनवस्त्र का प्रबंध, रुग्ण छात्रों की चिकित्सा, शुश्रूषा करते थे।
- कुल में सम्मिलित ब्रह्मचारी मात्र को आचार्य अपने परिवार का अंग मानते थे और उनसे वैसा ही व्यवहार रखते थे।
- आचार्य धर्मबुद्धि से निःशुल्क शिक्षा देते थे।
‘गुरू बिना ज्ञान अधूरा।‘ हमारे यहाँ गुरू का अत्यन्त महत्व है। उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश और साक्षात् परब्रह्म का दर्शन कराने वाला और अज्ञान नष्ट करने वाला बताया गया है।अद्वैत वेदान्त के अनुसार शिक्षक ऐसा होना चाहिए, जिससे सत्ता की अनुभूति कर ली तथा जो स्वयं जीवन मुक्त हो। विद्यार्थी अध्यापक का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से अनुकरण करते है।अतः अध्यापक की भाषा रहन-सहन व्यवहार आदि सभी बातों में छात्रों के लिए अनुकरणीय हातेे है।स्मृतियों के अनुसार शिक्षक चार प्रकार के है-कुलपति, आचार्य, गुरू व उपाध्यायविद्यार्थी/शिष्य
- विद्यार्थी गुरु का सम्मान और उनकी आज्ञा का पालन करते थे।
- आचार्य का चरणस्पर्श कर दिनचर्या के लिए प्रातःकाल ही प्रस्तुत हो जाते थे।
- गुरु के आसन के नीचे आसन ग्रहण करा, सुसंयत वेश में रहना, गुरु के लिए दातौन इत्यादि की व्यवस्था करना, उनके आसन को उठाना और बिछाना, स्नान के लिए जल ला देना, समय पर वस्त्र और भोजन के पात्र को साफ करना, ईधंन संग्रह करना, पशुओं को चराना इत्यादि छात्रों के कर्तव्य माने जाते थे।
- विद्यार्थी ब्राह्ममुहूर्त में उठते थे और प्रातः कृत्यों से निवृत्त होकर, स्नान, संध्या, होम आदि कर लेते थे। फिर अध्ययन में लग जाते थे।
- इसके उपरांत भोजन करते थे और विश्राम के पश्चात् आचार्य के पाठ ग्रहण करते थे।
- सांयकाल समिधा एकत्र कर ब्रह्मचारी संध्या ओर होम का अनुष्ठान करते थे।
- विद्यार्थी के लिए भिक्षाटन अनिवार्य कृत्य था। भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर विद्यार्थी मनन औरनिदिध्यासन में लग जाते थे।
अद्वेत वेदान्त के अनुसार प्रत्येक छात्र अनन्त ज्ञान एवं शक्ति का स्त्रोत है, उनमें तो शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक भिन्नता दिखाई देती है वह कर्म जनित है। यह भिन्नता उनका तटस्थ लक्षण है, स्वरूप लक्षण नहीं है। इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से सब छात्र समान है और व्यावहारिक दृष्टि से उनमें भिन्नता है।शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म ज्ञान के इच्छुक छात्रों को साधन चातुष्टय का पालन करना चाहिए। इस साधन चातुष्टय में इन्द्रियाँ निग्रह मन में श्रद्वा का महत्त्व तो व्यावहारिक ज्ञान की दृष्टि से भी होता है। आज के छात्र यदि शंकराचार्य की यह बात मान लें तो शिक्षा जगत की सभी समस्याओं का अन्त हो जायेगा।शिक्षा का पाठ्यक्रम
- वेदों का अध्ययन श्रावण पूर्णिमा को उपाकर्म से प्रारंभ होकर पौष पूर्णिमा को उपसर्जन से समाप्त होता था। शेष महीनों में अधीत पाठों की आवृत्ति, पुनरावृत्ति होती रहती थी।
- विद्यार्थी पृथक पृथक पाठ ग्रहण करते थे, एक साथ नहीं। प्रतिपदा और अष्टमी को अनध्याय होता था।
- गाँव, नगर अथवा पड़ोस मे आकस्मिक विपत्ति से और शिष्टजनों के आगमन से विशेष अनध्याय होते थे।
- अनध्याय में अधीत वेदमंत्रों की पुनरावृत्ति और विषयांतर का अध्ययन निषिद्ध न थे।
- विनय के नियमों का उल्लंघन करनेवाले विद्यार्थी को दंड देने की परिपाटी थी।
- पाठ्यक्रम के विस्तार के साथ वेदों ओर वेदांगों के अतिरिक्त साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण और चिकित्साशास्त्र इत्यादि विषयों का अध्यापन होने लगा।
शिक्षा के संस्थान
- टोल पाठशाला, मठ ओर विहारों में पढ़ाई होती थी।
- काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वलभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे।
- दक्षिण भारत के एन्नारियम, सलौत्गि, तिरुमुक्कुदल, मलकपुरम् तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे।
- अग्रहारों के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार शताब्दियों होता रहा। कादिपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे।
शिक्षण विधि
- प्राचीन शिक्षा प्रायः वैयक्तिक ही थी।
- कथा, अभिनय इत्यादि शिक्षा के साधन थे।
- अध्यापन विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था अर्थात् विषयों को स्मरण रखने के लिए सूत्र, कारिका और सारनों से काम लिया जाता था।
- पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष पद्धति किसी भी विषय की गहराई तक पहुँचने के लिए बड़ी उपयोगी थी।
- भिन्न भिन्न अवस्था के छात्रों को कोई एक विषय पढ़ाने के लिए समकेंद्रिय विधि का विशेष रूप से उपयोग होता था सूत्र, वृत्ति, भाष्य, वार्तिक इस विधि के अनुकूल थे।
- कोई एक ग्रंथ के बृहत्ा और लघु संस्करण इस परिपाटी के लिए उपयोगी समझे जाते थे।
- वेदकाल में हमें विभिन्न प्रकार की शिक्षा पद्धतियों का परिचय मिलता है। इसके लिए श्लोक है-
श्रवणं तु गुरोः पूर्व मननं तदन्तरम्।निदिध्यासनमित्येनत्पूर्ण बोधस्य कारणाम्।।बृह अरण्यक उपनिषद् में ज्ञानार्जन की श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन इन तीन प्रकारों की व्याख्या मिलती है। इसके उपरान्त निम्नविधियांे का वर्णन भी मिलता हैः-1. कथा-कथन विधिः- इसमें गुरू कथाएँ कहता फिर शिष्यों द्वारा उत्तर प्राप्ति करता की कथा का सार क्या है? जिससे शिष्यों की बुद्धिमता का पता चलता।2. प्रश्नोत्तर विधि:- इसमें प्रश्नों द्वारा उत्तर प्राप्त किया जाता था।3. वाद-विवाद विधि:- इसमंे शिष्यों में ज्ञान की वृद्धि की जाती थी।4. शास्त्रार्थ विधि:- इसमें समस्त शिष्यों में से विद्धान को चुना जाता था।5. परिचर्या विधि (सेमिनार्स):- इसमें गुरूओं के समक्ष शिष्य अपने ज्ञान का व्याख्यान करते थे।6. उपगुरू (मौनीटोरियल प्रणाली):- विद्धान शिष्य अपने सहपाठियों में ज्ञान व शिक्षा को बांटा करता था।
वैदिक काल में शिक्षा का अनुशासन
अध्ययन सुचारू रूप से चलाने के लिए अनुशासन आवश्यक है। जब तक मन संयमित न हो तब तक एकाग्रता नही आ पाती है और बिना एकाग्रता के अध्ययन संभव नहीं है। वेंदात में बाल प्रकृति की चार अवस्था का विवेचन किया है।
1. क्षिप्तः- बालक अपनी इन्द्रियों के अधीन रहता है उसका अन्तकरण चंचल होता है।
2. विक्षिप्तः- इस अवस्था में बालक का इन्द्रियों पर सीमित रूप से नियंत्रण होने लगता है। बालक स्वेच्छापूर्वक अध्ययन में मन लगाने का प्रयत्न करता है।
3. मुधाः- यह वह अवस्था है, जिसमें बालक का अपनी इन्द्रियों पर काफी नियंत्रण हो जाता है परन्तु आलस्यवश पूर्ण रूप से अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाता है।
4. एकाग्रता:- यह वह अवस्था है, जिसमें बालक इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अंहकार और चित्त सभी पर आत्मा का नियंत्रण होता है।
वैदिक काल में गुरू शिष्य संबंध
प्राचीन भारत में किसी वर्ग, विद्यालय या विषय का शिक्षक नहीं होता था। वह छात्र विशेष का गुरू होता था । अभिभावक उपनयन सस्ंकार के पश्चात् अपने बालक कोे गुरू के पास ले आते थे।
वैदिक शिक्षा में गुरू - शिष्य संबंध आदर्श थे। जिस प्रकार माता गर्भ में शिशु के पोषण, रक्षण और वर्धन का निर्वाह करती है, उसी प्रकार आचार्य गुरूकुल में प्रविष्ट हुए छात्र का पोषण, रक्षण एवं ज्ञानावर्द्धन करता था।
वैदिक काल में विद्यालय एवं परीक्षा पद्धति
1. घर:- माता का गर्भ ही प्रथम विद्यालय माना जाता था। जन्म के पश्चात् माता-पिता व परिवार से व्यवहार, आचार, सस्ंकार या अक्षर ज्ञान प्राप्त करता था।
2. पाठशाला:- यहाँ बालक अक्षर ज्ञान और सामान्य गणन क्रियाएँ सीखता था। ऐसी लगभग सभी गाँवों में पाठशालाएँ थी। इन्हें प्राथमिक शाला कह सकते है।
3. टोल:- ये लगभग उच्च प्राथमिक शालाओं जैसी थी। यहाँ एक से अधिक शिक्षक होते थे। विषयों में भी कुछ विविधता थी। दो-पाँच गाँवों के बीच आवास के साथ ऐसी शालाएँ थी। जो संपूर्ण निःशुल्क थी। शालाओं में वस्त्र, निवास, भोजन सभी की व्यवस्था वहाँ के आचार्य दान व भिक्षा माँग कर करते थे।
वैदिक काल में विद्यालय
1. घर:- माता का गर्भ ही प्रथम विद्यालय माना जाता था। जन्म के पश्चात् माता-पिता व परिवार से व्यवहार, आचार, सस्ंकार या अक्षर ज्ञान प्राप्त करता था।
2. पाठशाला:- यहाँ बालक अक्षर ज्ञान और सामान्य गणन क्रियाएँ सीखता था। ऐसी लगभग सभी गाँवों में पाठशालाएँ थी। इन्हें प्राथमिक शाला कह सकते है।
3. टोल:- ये लगभग उच्च प्राथमिक शालाओं जैसी थी। यहाँ एक से अधिक शिक्षक होते थे। विषयों में भी कुछ विविधता थी। दो-पाँच गाँवों के बीच आवास के साथ ऐसी शालाएँ थी। जो संपूर्ण निःशुल्क थी। शालाओं में वस्त्र, निवास, भोजन सभी की व्यवस्था वहाँ के आचार्य दान व भिक्षा माँग कर करते थे।
4. पाठशाला:- इन्हें माध्यमिक शाला कह सकते हैं। कोई लब्ध प्रतिष्ठित अध्यापक स्वयं या शासक की प्रार्थना पर बालकों को उच्चतर ज्ञान देने के लिए पाठशाला खोलता था। जिसमें व्याकरण, धर्मशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, वेद तथा आयुर्वेद आदि विषयों का शिक्षण दिया जाता था। गुरू भी इन्ही पाठशालाओं में रहते थे। गुरूमाताएँ उनकी सहायता करती थी।
5. गुरूकुल या आवासी विद्यालय:- गुरूकुल या तो नदी या विस्तृत जलवायु, सरोवर के पास नगर के कोलाहल से दूर किसी ऐसे वन या उपवन में स्थापित किया जाता था। जहाँ आश्रम की गायों के चरने, कुश और समिधा प्राप्त करने तथा विद्यार्थियों के निवास अध्ययन, व्यायाम और धनुर्विद्या के अभ्यास आदि के लिए पर्याप्त स्थान तथा स्वच्छ जलवायु प्राप्त होता था।
वैदिक काल में स्त्री शिक्षा
वैदिक साहित्य के वर्णन के अनुसार स्त्रियाँ उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर ब्रह्म-वादिनी या ऋषिका की संज्ञा प्राप्त करती थी।
विशवारा, अपाला, होमशा, शाश्वती, घोषा आदि विदुषियाँ, ऋग्वेद की विभिन्न ऋचाओं की रचयित्री है। इस प्रकार ऋग्वेद के समय में स्त्री शिक्षा पूर्णतः प्रचलित थी। उनका ज्ञान उच्च कोटि का था। पुरूषों की भांति वे भी ब्रह्मचारिणी रहकर उच्च शिक्षा प्राप्त करती था। जिसमें गार्गी का नाम प्रमुख है। अध्यापिकाओं के रूप में उपनिषदों में महिलाओं के रूप में उपनिषदों में महिलाओं का वर्णन है।
वैदिक शिक्षा पद्धति की विशेषताएँ
1. वैदिक शिक्षा सबके लिए अनिवार्य थी वैदिक, क्षत्रिय और वैश्यों के लिए गुरूकुल में स्त्रियों के लिए पिता या श्वसुर के घर, और शुद्रों के लिए अपने घर या शिल्पी के यहाँ शिक्षा दी जाती थी।
2. समग्र शिक्षा निःशुल्क थी।
3. आवासीय विद्यालय थे, जहाँ गुरू शिष्य साथ रहते थे।
4. गुरूओं को महत्ता प्रदान की गई थी। शिष्य उन्हें देव स्वरूप मानकर उनकी सेवा करके उनकी कृपा पाना अपना ध्येय समझता था।
5. गुरू छात्रों को अपना पुत्र मानकर उसके विकास का प्रयत्न करता था।
6. आचरण व संस्कार को प्रधान माना जाता था।
7. शिक्षा परीक्षा मौखिक थी। अध्यापक स्वतंत्र थे।
8. ऊँच-नीच, राजा-रंक का कोई भेद नहीं था।
9. अनेक विषयों के अध्ययन की सुविधा थी किन्तु किसी एक शास्त्र में पारंगत होना आवश्यक था।
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