गुरुवार, 6 मई 2021

ज्ञान के निर्माण में ज्ञाता तथा ज्ञात की भूमिका

ज्ञान के निर्माण में ज्ञाता तथा ज्ञात की भूमिका
Role of knower & known in construction of knowledge




    ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया में तथा उसके प्रचार-प्रसार या संचार या सम्प्रेषण में ज्ञाता, जिससे कुछ ज्ञात होता है तथा जो कुछ भी ज्ञात है उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अंग्रेजी शब्द Knower का अर्थ उस व्यक्ति से होता है जिसे कुछ ज्ञात होता है जो कि विषय विशेष से सम्बन्धित होता है; जैसे - एक शिक्षक छात्र के लिये ज्ञाता होता है जबकि छात्र को भी कुछ पहले से ही ज्ञात होता है। इसी क्रम में एक अधिगमकर्त्ता या छात्र कक्षा 7 का विद्यार्थी है उसे गणित विषय में पूर्ण ज्ञान है। वह अपने कनिष्ठ कक्षा के छात्र के लिये ज्ञाता होता है तथा उस कनिष्ठ छात्र को भी कुछ न कुछ ज्ञात अवश्य होता है। इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान के निर्माण एवं सम्प्रेषण में ज्ञाता एवं ज्ञात दोनों ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। इसके लिये ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया एवं ज्ञान के सम्प्रेषण या संचार को समझना आवश्यक होगा।
    ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया विशेष सन्दर्भों में पृथक् - पृथक् रूप में सम्पन्न होता है। यहाँ ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया का सम्बन्ध शिक्षक एवं शिक्षार्थी से सम्बन्धित है। ज्ञान निर्माण में एक शिक्षक द्वारा छात्रों की सहायता की जाती है। इस सहायता की प्रक्रिया के अन्तर्गत शिक्षक विषय विशेष के सन्दर्भ में छात्रों की समझने की या अधिगम की योग्यता विकसित करेगा तथा विषय सम्बन्धी ज्ञान को खोजने में सहायता करेगा। छात्रों को उस विषय के सन्दर्भ में विविध प्रकार की गतिविधियाँ प्रदान करेगा जिससे कि छात्र की उस विषय सम्बन्धी प्रत्येक जिज्ञासा को शान्त किया जा सके। उस विषय के ज्ञान को शंकाहीन बनाने में अर्थात् स्पष्ट एवं पारदर्शी बनाने में, विविध प्रकार की कल्पनाओं के परीक्षण करने में, उस विषय के झुकाव या प्रवृत्ति को समझने में, विषय सम्बन्धी दृश्यों को समझने तथा विषय के प्रत्येक पक्ष को समझने में सहायता करेगा; 
    जैसे- एक गणित का शिक्षक सर्वप्रथम यह जानने का प्रयास करता है कि उसके समक्ष जो छात्र है वह विषय विशेष के सन्दर्भ में कितना ज्ञान रखता है । छात्र गणित में जोड़ एवं घटाव तथा गुणा - भाग की क्रिया जानता है तो छात्रों को भिन्न का ज्ञान प्रदान करने में , गणितीय आकृतियों का ज्ञान प्रदान करने में तथा छात्र की गणितीय जिज्ञासा को शान्त करने में उसकी सहायता करेगा । इस आधार पर शिक्षक द्वारा छात्र के पास जो ज्ञान है तथा शिक्षक के पास जो ज्ञान है दोनों का संयोग करके गणितीय ज्ञान का निर्माण किया जायेगा ।
अत : प्रत्येक विषय का शिक्षक प्रत्येक छात्र के लिये उस विषय के ज्ञान में वृद्धि करने वाला सिद्ध होगा । इस प्रकार ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया सम्पन्न होती है । ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में शिक्षक एवं छात्र दोनों की भूमिका संयुक्त रूप से देखी जाती है ।
1. संज्ञानात्मक ज्ञान का निर्माण (Construction of cognitive knowledge) - संज्ञानात्मक ज्ञान निर्माण के विकास के लिये शिक्षक एवं छात्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसमें छात्र विषय सम्बन्धी संज्ञानात्मक तथ्यों को समझने के लिये स्वयं प्रयास करता है तथा शिक्षक की सहायता प्राप्त करता है, जैसे- विज्ञान शिक्षक द्वारा छात्रों को विज्ञान की परिभाषा, विज्ञान शब्द का अर्थ एवं विज्ञान से सम्बन्धित विविध अवधारणाओं का ज्ञान प्रदान किया जायेगा। छात्र विज्ञान के सन्दर्भ में जो कुछ भी तथ्यों का ज्ञान रखता है उन तथ्यों को समझने के आगे इनके ज्ञान वृद्धि के उपाय करता है। इस प्रकार शिक्षक एवं छात्र दोनों मिलकर विविध विषयों के सन्दर्भ में संज्ञानात्मक ज्ञान का निर्माण करते हैं। यह कार्य विषय विशेषज्ञ शिक्षक द्वारा सम्पन्न किया जाता है। 
2. अवबोधात्मक ज्ञान का निर्माण (Construction of perceptive knowledge)- अवबोधात्मक ज्ञान की निर्माण प्रक्रिया के अन्तर्गत शिक्षक छात्र की विषय के विविध तथ्यों की तुलना करने, व्याख्या करने एवं वर्गीकरण करने सम्बन्धी योग्यता को विकसित करता है; जैसे- एक गणित शिक्षक जानता है कि छात्र को त्रिभुज की अवधारणा का सामान्य ज्ञान है। शिक्षक छात्र का सहयोग करके उसे समकोण त्रिभुज एवं समबाहु त्रिभुज का ज्ञान प्रदान करेगा। जिसके आधार पर छात्र द्वारा त्रिभुजों की तुलना की जा सकेगी तथा त्रिभुजों की व्याख्या की जा सकेगी। छात्र द्वारा प्रत्येक गणितीय तथ्य को समझकर अपने ज्ञान में वृद्धि की जायेगी। छात्र विविध प्रकार की जिज्ञासाओं को अध्यापक से पूछकर अपने ज्ञान का निर्माण कर सकेगा। इस प्रकार शिक्षक एवं छात्र गणित के अवबोधात्मक पक्ष सम्बन्धी ज्ञान का निर्माण करते हैं।
3. अनुप्रयोगात्मक ज्ञान का निर्माण (Construction of application knowledge) - इस सोपान के अन्तर्गत छात्रों को विषय सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करने के पश्चात् उसका जीवन में उपयोग करना सिखाया जाता है जिससे छात्र की विषय के प्रति रुचि उत्पन्न हो सके; जैसे गणितीय जोड़, घटाव एवं गुणा-भाग की क्रियाओं का अनुप्रयोग छात्र अपने दैनिक जीवन में सामान खरीदते समय तथा बेचते समय कर सकता है। इसके साथ-साथ गणित के जीवन में महत्त्व पर शिक्षक के साथ परिचर्चा कर सकता है। प्रकार की स्थिति में छात्र गणित के विविध उपयोगों को सीख सकता है। गणित के भविष्यगत् महत्त्वों पर भी शिक्षक छात्र परिचर्चा करते है।
4. कौशलात्मक ज्ञान का निर्माण (Construction of skilled knowledge)– कौशलात्मक ज्ञान का निर्माण भी शिक्षक एवं छात्र दोनों की सहभगिता से सम्पन्न होता है; जैसे - एक छात्र को सरल रेखा एवं समान्तर रेखाएँ बनाना आता है। शिक्षक उसको उन रेखाओं के माध्यम से त्रिभुज, वर्ग एवं चतुर्भुज सम्बन्धी आकृतियाँ निर्मित करने का ज्ञान प्रदान करता है। धीरे - धीरे छात्र गणितीय आकृतियों एवं गणितीय मॉडलों का निर्माण करने में निपुण हो जाता है। इस प्रकार शिक्षक के द्वारा छात्रों के कौशलात्मक ज्ञान में वृद्धि होती है। 
5. अभिरुच्यात्मक ज्ञान का निर्माण (Construction of aptitude knowledge)– इस सोपान के अन्तर्गत शिक्षक छात्र की विषयगत् अभिरुचि में वृद्धि करता है। छात्र विविध प्रकार की गणितीय समस्याओं को प्रस्तुत करता है तथा शिक्षक से उसका समाधान प्राप्त करता है। इसके साथ - साथ शिक्षक द्वारा छात्रों को जो भी ज्ञान प्रदान किया जाता है, छात्र उसमें रुचि का प्रदर्शन करता है। इस प्रकार छात्रों द्वारा अपनी रुचि का प्रदर्शन अधिगम प्रक्रिया में तथा शिक्षक द्वारा अपनी रुचि का प्रदर्शन शिक्षण प्रक्रिया में किया जाता है। इस आधार पर अभिरुच्यात्मक ज्ञान का निर्माण सम्भव होता है। 
6. अभिवृत्त्यात्मक ज्ञान का निर्माण (Construction of attitude knowledge)- ज्ञान के अन्तर्गत छात्रों में शिक्षक विषय विशेष के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयास करता है, जैसे- एक छात्र जिस गणित विषय को नीरस छात्र उस गणित विषय को सरल समझने लगता है। इस प्रकार शिक्षक एवं छात्र दोनों ही गणित विषय एवं उससे सम्बन्धित गतिविधियों के लिये पूर्ण समर्पित भाव से कार्य करते हैं। 



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