बुधवार, 28 अप्रैल 2021

ज्ञान के निर्माण में समावेशित घटक या तत्त्व

ज्ञान के निर्माण में समावेशित घटक या तत्त्व
Factors involved in construction of knowledge



    सामान्य रूप से बालक अपने जीवन में दो प्रकार की ज्ञानात्मक व्यवस्था से परिचित होता है। उसको विद्यालय की व्यवस्था से तथा स्वयं के अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। अनेक अवसरों पर दोनों प्रकार के ज्ञान में सामंजस्य उपस्थित हो जाता है; जैसे- आग से दूर रहना चाहिये। यह ज्ञान छात्र को विद्यालय में बताया गया। इसके उपरान्त बालक ने जब आग को छूने। अतः विद्यालय के ज्ञान तथा का प्रयास किया तो उसे पता चला कि वह उससे जल सकता अनुभवजन्य ज्ञान में एकता सिद्ध हो गयी। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि बालक का विद्यालयी ज्ञान उसके लिये तब तक सामान्य तथ्य था जब तक कि उसने इसे अनुभव नहीं किया था परन्तु जैसे ही बालक ने इसकी सत्यता एवं प्रभावशीलता को अपने अनुभव के द्वारा सत्य सिद्ध पाया तो यह ज्ञान स्थायित्वता से परिपूर्ण हो गया तथा बालक द्वारा आत्मसात् किया गया। इस प्रकार विद्यालयी ज्ञान एवं अनुभवजन्य ज्ञान दोनों ही महत्त्व होते हैं।

1. विद्यालयी ज्ञान (School based knowledge) - विद्यालयी ज्ञान का आशय तथ्यात्मक ज्ञान की व्यवस्था से जिसमें बालक को औपचारिक एवं क्रमबद्ध रूप में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के माध्यम से ज्ञान सिखाया जाता है । विद्यालयी व्यवस्था में ज्ञान एक निश्चित समय • सीमा के अन्तर्गत एक निश्चित ज्ञानात्मक व्यवस्था में परिपूर्ण किया जाता है । विद्यालयी व्यवस्था पूर्ण रूप से औपचारिक ज्ञान का केन्द्र है जिसमें विभिन्न प्रकार के प्रयासों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है । विद्यालय ज्ञान की प्रक्रिया एवं व्यवस्था को निम्नलिखित रूप में समझाया जा सकता है- 

(1) तथ्यात्मक ज्ञान (Factorial knowledge) - विद्यालगी जान प्रमुख रूप से तथ्यात्मक ज्ञान पर आधारित होता है । इसमें विभिन्न प्रकार के विषयों का तथ्यात्मक ज्ञान प्रदान किया जाता है । अनेक अवसरों पर प्रयोग प्रदर्शन के माध्यम से विद्यालयी ज्ञान प्रदान किया जाता है । इस प्रकार का ज्ञान विज्ञान आदि विषयों के क्षेत्र में सम्पन्न होता है ; जैसे गैस के बारे में तथ्यात्मक ज्ञान भी प्रदान किया जाता है तथा उसको प्रयोगशाला में बनाकर भी सिद्ध किया जा सकता है ।

(2) क्रमबद्ध ज्ञान (Systematic knowledge)- क्रमबद्ध रूप में ज्ञान प्रदान करना विद्यालयी ज्ञान की प्रमुख विशेषता है । विद्यालयी ज्ञान में एक निश्चित समय तालिका के अनुसार ज्ञान प्रदान किया जाता है जिसमें विद्यालय में महत्त्वपूर्ण विषयों के अध्ययन को स्थान प्रदान किया जाता है जो कि बालक के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक है ; जैसे- प्राथमिक स्तर पर हिन्दी , गणित एवं विज्ञान के ज्ञान को प्राथमिकता प्रदान की जाती है तथा वर्तमान में पर्यावरणीय अध्ययन को भी महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में स्वीकार किया जाता है । 

(3) औपचारिक व्यवस्था (Formal arrangement)- विद्यालयी ज्ञान के अन्तर्गत सभी व्यवस्थाएँ पहले से ही निर्धारित एवं औपचारिक होती हैं । इस औपचारिक व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक कक्षा के स्तर के अनुसार बालकों को ज्ञान प्रदान करने की विधियों का निश्चय किया जाता है । विद्यालयी ज्ञान में बालकों के शारीरिक एवं मानसिक विकास को ध्यान में रखकर सम्पूर्ण शैक्षिक व्यवस्था का निर्धारण किया जाता है । इसमें बालकों के स्तर का ध्यान रखा जाता है । 

(4) सैद्धान्तिक ज्ञान (Theoritical knowledge) - विद्यालयी व्यवस्था में छात्रों को सैद्धान्तिक ज्ञान को प्रदान करने की अधिकता पायी जाती है। वर्तमान समय में सरकार एवं शिक्षाशास्त्रियों द्वारा व्यावहारिक ज्ञान पर अधिक बल दिया जा रहा है परन्तु भारतीय विद्यालयों में सभी सुविधाओं के उपलब्ध न होने के कारण सैद्धान्तिक ज्ञान की अधिकता पायी जाती है तथा व्यावहारिक ज्ञान की कमी पायी जाती है। 

(5) अमूर्त ज्ञान (Virtual knowledge)- विद्यालयी व्यवस्था में अमूर्त विषयों के ज्ञान की अधिकता पायी जाती है। वर्तमान समय में अमूर्त ज्ञान को मूर्त बनाने का प्रयास भी किया जा रहा है; जैसे- वर्णाक्षरों के ज्ञान को चित्रों के माध्यम से पढ़ाया जाता है जिससे बालक रूचि पूर्ण ढंग से ज्ञान प्राप्त कर सकें। अमूर्त ज्ञान को प्राप्त करने में प्रतिभाशाली बालक तो सक्षम हो जाते हैं। परन्तु सामान्य बुद्धि लब्धि के बालक इसको प्राप्त करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। 

(6) निश्चित विधियाँ (Fixed methods)- विद्यालयी ज्ञान में ज्ञान प्रदान करने की विधियाँ भी निश्चित होती हैं जिनके अनुसार ही बालकों को ज्ञान प्राप्त करना होता है तथा शिक्षक को ज्ञान प्रदान करना होता है। इन विधियों का प्रयोग प्रभावी भी हो सकता है तथा अनेक स्थितियों में प्रभावहीन भी हो सकता है। वर्तमान समय में अनेक वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करके ज्ञान प्रदान करने की प्रक्रिया को प्रभावी बनाया जाता है जैसे- दल शिक्षण प्रायोजना विधि, समस्या समाधान विधि तथा भ्रमण विधि आदि । 

(7) सीमित विषय (Limited subjects)- विद्यालयी ज्ञानात्मक व्यवस्था में विषयों का क्षेत्र भी सीमित होता है। सीमित विषय भी छात्रों की योग्यता एवं स्तर के अनुसार निश्चित किये जाते होता है। इन विषयों में छात्रों के सर्वांगीण विकास के उद्देश्य को ध्यान में रखा जाता है। 

(8) सीमित क्षेत्र (Limited field)- विद्यालयी ज्ञान के अन्तर्गत ज्ञान का क्षेत्र सीमित होता है। उसको आवश्यकता के अनुसार एक निश्चित समिति द्वारा ही विस्तृत रूप प्रदान किया जाता है। दूसरे शब्दों में विद्यालयी ज्ञान का परिदृश्य एक निश्चित क्षेत्र के आसपास ही घूमता है क्योंकि ये सामान्य बालकों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है। विद्यालयी ज्ञानात्मक व्यवस्था को इस क्षेत्र से बाहर जाने का प्रयास नहीं होता। 

(9) निश्चित मूल्यांकन (Fixed evaluation)- सीमित मूल्यांकन प्रक्रिया के अन्तर्गत विद्यालय में परीक्षा की व्यवस्था में समानता एवं एकता पायी जाती है। इस मूल्यांकन प्रक्रिया में किसी विशेष छात्र के लिये कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया जा सकता। सामान्य रूप से विद्यालयों में ज्ञान के मूल्यांकन की प्रक्रिया भी सामान्य रूप से एक प्रकार की पायी जाती है उसमें विशेष कारणों से ही परिवर्तन किया जाता है। 

(10) रुचिपूर्ण शिक्षण (Interest teaching)- रुचिपूर्ण शिक्षण व्यवस्था विद्यालयी ज्ञान का प्रमुख अंग है। विद्यालयी व्यवस्था में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी एवं रुचिपूर्ण बनाने के लिये शिक्षकों द्वारा उचित प्रयास किये जाते हैं। इसके लिये शिक्षण अधिगम सामग्री का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है तथा छात्रों की सहभागिता की प्रक्रिया को निश्चित रूप प्रदान किया जाता है। रुचिपूर्ण शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत छात्रों के मानसिक एवं योग्यता के स्तर के साथ-साथ रुचियों का भी ध्यान रखा जाता है। 


2. अनुभवजन्य ज्ञान ( Experience based knowledge ) – अनुभवजन्य ज्ञान , ज्ञान प्राप्ति की एक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है जिसमें छात्र अपने स्वप्रयासों से तथा शिक्षक के सहयोग से ज्ञान प्राप्त करता है। अनुभवजन्य ज्ञान प्राप्त करने में बालक स्वतन्त्र होता है उस पर किसी प्रकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता; जैसे- बालक आम खाने की अपेक्षा दूध पीकर दूध के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहता है तो उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार अनुभवजन्य ज्ञान में ज्ञान प्राप्त करना पूर्ण स्वतन्त्र होता है उसको किसी प्रकार के विशेष औपचारिक नियमों में नहीं बाँधा जा सकता। अनुभवजन्य ज्ञान को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जाता है-

(1) पारिवारिक एवं सामाजिक ज्ञान (Familial and social knowledge)- अनुभवजन्य ज्ञान के अन्तर्गत बालक द्वारा विद्यालय से बाहर प्राप्त ज्ञान भी सम्मिलित किया जा सकता है। इसमें बालक अपने परिवार में जो अनुभव करता है तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का अवलोकन करता है उस ज्ञान को सम्मिलित किया जाता है। अतः परिवार एवं समाज के विभिन्न प्रकार के अनुभव अनुभवजन्य ज्ञान की श्रेणी में आते हैं। इस ज्ञान का क्षेत्र विद्यालयी भी इसमें समाहित किया जा सकता है। 

(2) परिचयात्मक ज्ञान की अधिकता (More identified knowledge)- प्रत्येक वस्तु से ज्ञाता का प्रत्यक्ष परिचय होता है, जैसे- एक बालक गाय को देखता है तो उसके अनुभवजन्य ज्ञान में परिचयात्मक ज्ञान की अधिकता होती है क्योंकि इस ज्ञान की प्रक्रिया में रंगरूप एवं आकार को आँखों से देखता है। अपने हाथों से उसको छूकर अनुभव करता है। उसके दूध को पीकर अनुभव करता है कि उसका स्वाद कैसा है? इस प्रकार अनुभवजन्य ज्ञान में परिचयात्मक ज्ञान की अधिकता होती है। 

(3) क्रमबद्धता का अभाव (Lack of system) - अनुभवजन्य ज्ञान में क्रमबद्धता का अभाव पाया जाता है। इस ज्ञान के लिये कोई निश्चित समय तालिका या किसी निश्चित व्यवस्था का सृजन नहीं होता। इस ज्ञान की प्राप्ति के सन्दर्भ में ज्ञाता की प्रमुख भूमिका होती है। ज्ञाता अपनी इच्छा के अनुसार भिन्न- भिन्न रुचियों के आधार पर ज्ञान प्राप्त करता है। इसमें ज्ञाता ज्ञान प्राप्त करने में पूर्ण स्वतन्त्र होता है। 

(4) अमूर्त ज्ञान की अधिकता (More trial knowledge)- अमूर्त ज्ञान को प्राप्त करने में अनुभवजन्य ज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह ज्ञान सामान्य रूप से मूर्त वस्तुओं से ही सम्बन्धित होता है। इसमें मूर्त वस्तु के सन्दर्भ में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अनुभव किया जाता है; जैसे- विभिन्न प्रकार की उपयोगी वस्तुओं के सन्दर्भ में प्राप्त ज्ञान अनुभवजन्य की श्रेणी में ही आता है। 

(5) व्यावहारिकता की अधिकता (More practicability)- अनुभवजन्य ज्ञान में व्यावहारिकता की अधिकता पायी जाती है। इसमें सैद्धान्तिकता का अभाव पाया जाता है। अनुभवजन्य ज्ञान का सम्बन्ध व्यावहारिक क्षेत्र से ही पाया जाता है; जैसे- योग के पश्चात् व्यक्ति का शारीरिक थकान से मुक्ति का अनुभव, गर्मी में छाया एवं ठण्डे जल का अनुभव आदि। इस प्रकार अनुभवजन्य ज्ञान में मूर्त वस्तुओं से ज्ञाता का सम्पर्क होता है। 

(6) व्यापक क्षेत्र (Broad field)- अनुभवजन्य ज्ञान का कोई निश्चित पाठ्यक्रम नहीं होता और न ही इसकी कोई सीमा होती है। इस ज्ञान म वस्तु का सम्बन्ध ज्ञाता से होता है तथा ज्ञाता जिन-जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है उसके ज्ञान में वृद्धि होती है। इस प्रकार वह अनेक वस्तुओं के सम्पर्क में आता है तथा अपने अनुभवजन्य ज्ञान में वृद्धि करता है। 

(7) स्वमूल्यांकन (Self-evaluation)- अनुभवजन्य ज्ञान का मूल्यांकन भी स्वयं छात्र द्वारा अर्थात् ज्ञाता द्वारा किया जाता है। प्रत्येक छात्र जो भी ज्ञान वस्तु के सन्दर्भ में प्राप्त करता है वह उसे सत्य एवं वैध मानकर स्वयं ही उसका मूल्यांकन करता है। अर्थात् जिस वस्तु के सन्दर्भ में ज्ञाता जो ज्ञान का अनुभव करता है वही उसकी वैधता एवं विश्वसनीयता को प्रमाणित करता है। 

(8) स्वअधिगम प्रक्रिया (Self learning process)- इस प्रकार के ज्ञान में शिक्षक द्वारा किसी प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता नहीं होती । इसमें ज्ञान प्राप्त करने वाला स्वयं इन्द्रियों की सहायता से अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ, एक बालक अपने घर में पालतू कुत्ते को देखता है तो वह उसकी विशेषताओं एवं गतिविधियों का अनुभव स्वयं करता है तथा उसके सन्दर्भ में अवधारणा का निर्माण करता है। इस प्रकार अनुभवजन्य ज्ञान में स्व- अधिगम प्रक्रिया सम्पन्न होती है। 

(9) वैधता का समावेश (Inclusion of validity)- अनुभवजन्य ज्ञान में वैधता का पूर्ण प्रभाव पाया जाता है क्योंकि ज्ञाता द्वारा इसको स्वयं प्राप्त किया जाता है इसलिये ज्ञाता इस ज्ञान की वैधता पर कोई सन्देह नहीं करता। उदाहरणार्थ, जब बालक अपने घर में देखता है कि मेज हरे रंग की है तो इस प्राप्त ज्ञान को सदैव वह वैध ज्ञान के रूप में स्वीकार करेगा क्योंकि उसने मेज के हरे रंग को अपनी आँखों से देखा है।

 (10) विश्वसनीयता का समावेश (Inclusion of reliability)- अनुभवजन्य ज्ञान में विश्वसनीयता का समावेश होता है क्योंकि अन्य किसी के द्वारा कहे गये ज्ञान या कथन के बारे में अविश्वास किया जा सकता है परन्तु ज्ञाता जिन तथ्यों का स्वय अनुभव करता है उनको वह अविश्वसनीय नहीं मान सकता। उदाहरणार्थ, एक बालक जब यह अनुभव करता है कि आग जलाने का कार्य करती है तो वह इस ज्ञान को विश्वसनीय रूप में ही स्वीकार करेगा क्योंकि उसने आग से जलने का अनुभव प्राप्त किया है।

 

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