गुरुवार, 22 जुलाई 2021

निर्देशन- विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए (Need of Guidance for children with special needs )

विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए निर्देशन एवं परामर्श की आवश्यकता
Need of Guidance & counselling for children with special needs 


    इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति भिन्न-भिन्न है यहां तक कि जुड़वा बच्चे भी भिन्नता देखने को मिलती है, इसी प्रकार शारीरिक रचना, बुद्धि, सामाजिक-आर्थिक स्तर, संवेगात्मक स्थिति सभी से भिन्नता होती है पर जब यह भिन्नता इतनी अधिक हो जाती है तो उन लोगों को सामान्य कार्य करने के लिए भी सहायता की आवश्यकता हो जाती है तो हम उन्हें विशिष्ट आवश्यकता (विशेष समूह) वाला समूह कहते है।
कारण 
1. अभिभावक द्वारा अपने बच्चे को विशेष न मानना - ऐसे बच्चों के अभिभावक ना तो ऐसे बच्चों को स्वीकार करने को तैयार होते है ना ये मानने को तैयार होते है कि उनका बच्चा विशेष है वे उसे अभिशाप, पापों का दण्ड जैसे नकारात्मक भाव अपने बालक के प्रति रखते है खुद को एवं बालकों को कोसते है ऐसे में सबसे पहले अभिभावकों के परामर्श की आवश्यकता होती है ताकि वे ऐसे बालक को स्वीकार कर पाए तथा उसकी जरूरतों को समझे।
2. अध्यापक सहयोग देने की समूचित विधियों से परिचित नहीं होते हैं।
3. संस्थानों में समूचित साधनों एवं सुविधाओं का अभाव होता हैं।
4. विद्यार्थियों में हीनता एवं आत्मविश्वास की कमी होना हैं।
5. सम्मान पूर्वक जीवन जीने हेतु व्यावसायिक परामर्श की आवश्यकता होती हैं।
6. बालको के अनुरूप शिक्षण विधि का उपयोग के लिए।
विशिष्ट आवश्यकता (विलक्षणता) वाले बालको का वर्गीकरण 
विलक्षणता के आधार पर ऐसे विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को 4 वर्गो में वर्गीकृत किया जाता है-

    असाधारण (विशिष्ट आवश्यकता) बालक से तात्पर्य उन बालकों से है जो किसी प्रकार से सामान्य बालकों से विचलन (अलग) प्रदर्शित करते है।



संज्ञानात्मक विलक्षणता
    वे सभी बालक जो अत्यधिक प्रतिभाशाली है, या मानसिक रूप से विमंदित है, कम उपलब्धि प्राप्त करने वाले या धीमी गति से सीखने वाले, वे सभी इसी श्रेणी के अन्तर्गत रखे जाते है- 
    अत्यधिक सृजनात्मक बालकों को भी विलक्षण बालकों की श्रेणी में रखा जाता है इस प्रकार इस श्रेणी में पांच प्रकार के बालकों को रखा गया है इसमें वे बालक आते है जो सामान्य सभाव्यता वक्र में दोनों तरफ सामान्य रूप से विचलित होते है। यह पांच प्रकार हैं-

1.प्रतिभाशाली बालक (BRILLIANT CHILD)

    ‘‘टरमैन’’ के अनुसार वे बालक जिनकी बुद्धिलब्धि 140 या उससे अधिक है तथा जो चिन्तन से क्षमता युक्त है प्रतिभाशाली बालक कहलाते है इन बालको का प्रदर्शन पढ़ाई व अन्य क्षेत्रों में भी श्रेष्ठ होता है। 
    ये बच्चे बुद्धि में औसत बच्चों से अत्याधिक उच्च होते है। इसलिए चीजों को आसानी से समझ व सीख लेते है सामान्य बच्चों से कम समय व कम प्रयास में। इसलिए इन बच्चों को अनेक सामाजिक, भावनात्मक व समायोजन संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं।

प्रतिभाशाली बालकों के लिए निर्देशन
1. विद्यालयों में शीघ्र प्रवेश दिया जाए।
2. सीधे उच्च कक्षाओं में प्रवेश दिया जाए या एक वर्ष में दो कक्षा एक साथ या कुछ कक्षा छोड़ने की अनुमति दी जाए या अपनी उम्र से ऊँची कक्षा की परीाा देने का अधिकार दिया जाए।
3. अपने पंसद के विषय में स्वयं निर्धारित शीर्षक पर गहन अधिगम के छूट दी जाए।
4. ऐसे बालकों के लिए कुछ विशेष कक्षाओं की व्यवस्था की जा सकती है।
5. विद्यालयी मूल विषयों के साथ अन्य और विषय पढ़ने की छूट दी जा सकती है।
6. पाठ्यक्रम में उच्च स्तरीय चिंतन को समाहित किया जाए।
7. व्यक्तित्व विकास कार्यशालाओं को आयोजन कर विकास में सहायता प्रदान की जा सकती है।
8. ऐसे बालकों को पढ़ाने के लिए प्रतिभाशाली अध्यापकों का प्रबन्ध हो ताकि वे बालक अपनी जिज्ञासा शांत कर सकें।
9. ऐसे बालकों को कक्षा में कुछ अन्य जिम्मेदारियां दी जाए।
10. सेमीनार, वर्कशाॅप में भाग लेने के अवसर प्रदान किये जाए।
11. विभिन्न प्रतियोगिताओं जैसे प्रश्नोतरी, वाद-विवाद, सामान्य ज्ञान में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
12. खुले प्रश्न पूछे जाए।

 2.सृजनात्मक बालक(CREATIVE CHILD)

ऐसे बालक जो नवीन, मौलिक व विलक्षण सोचने की क्षमता युक्त होते है सृजनात्मक बालकों की श्रेणी में आते है। इनमें प्रवाहिता, लचीलापन व मौलिकता का गुण होता है, सृजनात्मकता के ये तीनों ही तत्वों का विकास संरचनात्मक विद्यालयी प्रशिक्षण व कठोर पारिवारिक अनुशासन से बाधित होता है। संसार में व्याप्त सुन्दरता चाहे वह आविष्कारों को रूप में हो, कविता, कहानी, उपन्यास या चित्रकारी के रूप में इन्हीं सृजनात्मक लोगों की वजह से है।

सृजनात्मक बालकों के लिए निर्देशन

i. मस्तिष्कीय तुफान - अध्यापक द्वारा किसी विषय समस्या है या किसी वस्तु के उपयोग के लिए जितने अधिक विचार प्रस्तुत किये जा सकते हो प्रस्तुत करने पर बल दिया जाए ताकि सृजनात्मक विकसित कि जा सके। यहां पर अध्यापक को चाहिए कि वह हर विचार का सम्मान करें, बालक को अधिक से अधिक विचार प्रस्तुत करने के लिए अभिप्रेरित करे।
ii. सिनेटिक्स - यह विधि विलियम गाॅर्डन द्वारा विकसित की गई, इस विधि का प्रयोग मुख्यतः जटिल यांत्रिक समस्याओं का हल कर पाने हेतु किया जाता है। इसमें भी समस्याओं का वैकल्पित समाधान ढूढ़ पाता है।
iii. भूमिका अदा करना - इसका उपयोग कर बालकों को ऐसे अनुभव प्रदान किये जा सकते है जो वे सामान्यतः वास्तविक जीवन में नहीं प्राप्त कर पाते हैं। सोचने का अवसर प्राप्त होता है जिससे उसमे बहुआयामी चिन्तन का विकास होता है।
iv. लक्षणों को सुचीबद्ध करना - यह किसी विशेष उत्पाद सेवा य क्रिया में सुधार का महत्वपूर्ण तरीका है उदाहरणार्थ- चम्मच का सामान्य उपयोग खाना-खाना है पर इसका अन्य उपयोग ढक्कन खोलने में भी किया जा सकता है। इस प्रकार वस्तु की विशेषता को बड़ा दिया जाता है।

3.कम उपलब्धि वाले बालक(UNDERACHIEVING CHILD)

    कुछ बालक विद्यालय में अपनी क्षमताओं से कम शैक्षिक उपलब्धि प्राप्त करते है वे बालक इस श्रेणी में आते है। ये बालक अपनी बुद्धिलब्धि के अनुरूप अपेक्षित उपलब्धि के स्तर को प्राप्त नहीं कर पाते हैं व उसमें निम्न स्तरीय निष्पत्ति हाती है।

कम उपलब्धि बालको के लिए निर्देशन 

    कम उपलब्धि प्राप्त बालक विद्यालय में निष्पत्ति के आधार पर संज्ञानात्मक विलक्षणता को एक और समूह में विभाजित किया है, जो बालक जिनकी शैक्षिक निष्पत्ति उनकी क्षमता की तुलना में कम होती है उन्हें हम कम उपलब्धि वाले बालक कहते है। 
    बालक के विद्यालयी अंको व बुद्धिलब्धि बालकों में तुलना कर कम-उपलब्धि बालकों का पता लगाया जा सकता है। कम उपलब्धि के अनेक कारण हो सकते है जैसे विषय या पढ़ाई में रूचि का ना होना, अच्छा प्रदर्शन करने की अभिप्रेरणा का अभाव, गलत या अप्रभावी अध्ययन आदते, साथ ही घर का माहौल या विद्यालय का वातावरण भी इसके लिए जिम्मेदार हो सकते है।
1. बालक खुद का मूल्यांकन स्वयं कर सके ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन विद्यालय में किया जाए।
2. ऐसे बालकों को कार्य के तुरन्त पश्चात् उनके द्वारा किये गए कार्य के निष्पादन की जानकारी प्रदान की जाए ताकि वे विश्लेषण कर अपने निष्पादन को सुधार सके।
3. कम निष्पादन से जुडे़ कारकों की पहचान के लिए अभिप्रेरित किया जाए।
4. अच्छी अध्ययन आदतों के विकास के लिए कक्षा में वार्ता की जा सकती है।
5. समूह परामर्श द्वारा अच्छे निष्पादन के लिए पे्ररित किया जाए।
6. व्यक्तिगत परामर्श प्रदान किया जाए।
7. स्वयं छोटे-छोटे लक्ष्य बनाकर उन्हें प्राप्त करने के लिए अभिप्रेरित किया जाए।
8. सहपाठियों से पढ़ाई में सहायता लेने को अभिप्रेरित किया जाए। साथ ही सहपाठियों को सहायता करने हेतु अभिपे्ररित किया जाए।
9. अध्यापक-अभिभावक वार्ता में ऐसे बालकों के अभिभावकों को नियमित रूप से बुलाया जाए, जहाँ अध्यापकों द्वारा अभिभावकों को बालक की इस समस्या से परिचित कराया जाए। साथ ही अभिभावकों को इस समस्या में सहायता हेतु वे किस प्रकार योगदान दे सकते है ये बताया जाए। 

                     4.मंद गति से सीखने वाले बालक (SLOW LEARNER)

    इन बालकों की बुद्धिलब्धि 81 से 90 होती है। इन्हें सीखने में सामान्य बच्चों को ज्यादा समय लगता है इसलिए इन्हें मंद गति से सीखने वाला बालक कहा जाता है।

मंदगति से सीखने वाले बालकों के लिए निर्देशन

1. ऐसे बच्चों को व्यक्तिपरक देखभाल की आवश्यकता होती हैं।
2. एक बार में एक ही आदेश या सूचना दी जानी चाहिए।
3. जो भी सूचना दी जाए वह बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए।
4. सूचनाएं अन्तविरोधी नहीं होनी चाहिए।
5. पढ़ाने में अधिक से अधिक संवेदी सूचनाओं का उपयोग किया जाए।
6. अध्ययन अनुभवों का विस्तार किया जाए जैसे- अगर शिक्षक फूल के बारे में समझाना चाहता है। तो कक्षा में फूल को साथ में लाकर उसके साथ फूल का सम्प्रत्यय समझा जा सकता है।
7. अगर वास्तविक चीजें उपलब्ध ना हो तो तस्वीरे दिखा कर भी अनुभव को बढ़ाया जा सकता है।
8. ऐसे बालकों को उनके निम्न निष्पादन के कारण पहचानने में मदद की जानी चाहिए।
9. इन बालकों के अभिभावकों को नियमित रूप से अध्यापक-अभिभावक मुलाकात में बुलाना चाहिए ताकि इन विद्यार्थियों की समस्याओं पर बात की जा सकें।
10. व्यक्तिगत परामर्श प्रदान किया जाए।
11. ‘‘अध्ययन आदतों’’ में सुधार का प्रशिक्षण देना चाहिए।

                    5.मानसिक रूप से विमंदित बालक (MENTALLY RETARDED CHILD)

    इन बालकों की बुद्धिलब्धि 75 से भी कम होती है यह मस्तिष्क की एक अवस्था है जिसे किसी भी इलाज द्वारा ठीक नहीं किया जा सकता है। वे बच्चे जिनकी बुद्धिलब्धि 50-75 के मध्य होती है। शिक्षित किये जा सकते है पर जिन बालकों की बुद्धिलब्धि 25 से 50 के मध्य होती है केवल प्रशिक्षित किये जा सकते है ताकि वे अपना दैनिक कार्य स्वयं कर सके। इन बालकों में निश्चित रूप से समायोगी व्यवहार में कमी के साथ सार्थक रूप से औसत बौद्धिक व मानसिक हास देखने को मिलता है। मानसिक रूप से दुर्बल बालक अपनी उम्र के अनुसार समायोजी व्यवहार नहीं कर पाते है तथा इनमें कम से कम समायोजी कौशल के दो क्षेत्रों में प्रभावशाल रूप से काफी चिंताजनक होती है जैसे - संचार, आत्म देख रेख, घरेलू जीवन, शैक्षिक कौशल, खाद्य तथा सुरक्षा, सामाजिक कौशल आत्म निर्देश आदि।

मानसिक रूप से विमंदित बालकों के लिए निर्देशन

1. पारिवारिक परामर्श दिया जाए ताकि ऐसे बच्चों के अभिभावक सर्वप्रथम अपने बच्चों को स्वीकार कर सके, साथ ही उन्हें इन बच्चों की विशेष आवश्यकताओं, समस्याओं व इनके साथ प्रभावशाली रूप से कार्य करने के तरीको की जानकारी व प्रशिक्षण दिया जा सके।
2. किसी भी पुनर्वास या सामाजिक प्रशिक्षण कार्यक्रम की सफलता के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता अभिभावकों द्वारा उन्हें स्वीकार किया जाना है क्योंकि जब अभिभावक बच्चों को स्वीकार तभी वे उनके लिए धनात्मक रूप से उनके विकास में योगदान दे पाएगें।
3. इन बालकों को कार्य करने के लिए कोई भी निर्देश व्यक्तिगत रूप से दिया जाना चाहिए।
4. इन्हें सीखाने के लिए उन गतिविधियों का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाना चाहिए जिनमें वे कुछ अपने हार्थो द्वारा करके सीख सके।
5. इन बच्चों की अमूर्त बुद्धि कम होती है इसलिए सिखाने के लिए ठोस वस्तुओं, वास्तविक जीवन की समस्याएं उदाहरण द्वारा शिक्षित किया जाना आवश्यक है।
6. इन बालकों में एकाग्रता की शक्ति कम होती है। अतः कालाशों का समय कम होना चाहिए।

ब्लॉग को like और subscribe जरूर करे । 

comment box मैं अपने शहर या गांव का नाम अवश्य लिखे। 

Dr. D R BHATNAGAR 

शिक्षकों हेतु लिखित सम्प्रेषण- परिपत्र, सूचना पत्र, आदेश पत्र, प्रतिवेदन, विवरण



शिक्षकों हेतु लिखित सम्प्रेषण
Written Communication for Teacher

    • कक्षा में शिक्षक मौखिक व लिखित सम्प्रेषण का ही सर्वाधिक उपयोग करता है। 
    • संप्रेषणकर्त्ता किसी सूचना या निर्देश को लिख कर संप्रेषित करता है। शिक्षक श्याम पट् पर लिख कर सम्प्रेषण का कार्य करता है तथा मूल्यांकन में भी लिखित सम्प्रेषण का ही उपयोग किया जाता है। 
    • विद्यालय में कई लोगों के मध्य लिखित सम्प्रेषण होता है जैसे प्राचार्य और शिक्षकों के बीच। शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच तथा विद्यालय प्रबंधन समिति व शिक्षकों, प्राचार्य व अभिभावकों  के बीच। 
    • इस प्रकार से वर्तमान में शिक्षकों के लिए लिखित सम्प्रेषण कौशल में निपुण होना भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। लिखित सम्प्रेषण करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
    • उचित भाषा का चुनाव- ऐसी भाषा चुननी चाहिए जो कि संदेश प्राप्त कत्र्ता को समझ में आए। कक्षा में संदेश ग्राहक एक से अधिक होते है उनमें वैयक्तिक विभिन्नताएँ भी होती है। कोई कठिन क्लिष्ट भाषा भी समझ लेता परन्तु कुछ विद्याार्थि सरल भाषा समझ लेता है।
    • लिखते समय लेखन में व्याकरण संबंधि त्रुटियाँ न हो तथा अक्षर सुंदर लिखने का प्रयास करे।
    • लिखित संदेश छोटा व सारगर्भित व विषयवस्तु से संबंधित होना चाहिएं।
    • हस्तलिखित बिंदु (Hand written point) बनाते है जो कि विद्यार्थियों स्व-अध्ययन में उपयोगी होते है उनमें पाठ के सभी महत्वपूर्ण बिंदु आने चाहिए व उन्हें रेखाचित्रों के माध्यम से रचनात्मक बनना चाहिए।
    • वर्तमान में सभी सरकारी व गैर सरकारी विद्यालयों में विद्यालय प्रबंधन समितियाँ होती है उसके सदस्य शिक्षक भी होते है व उससे संबंधित Notice, आदेश, उसकी नीतियाँ व योजनाओं को लिखित रूप से ही संप्रेंषित किया जाता है।
    • सामान्यतः पूरी कक्षा को दिये जाने वाले निर्देश लिखित सम्प्रेषण के माध्यम से संप्रेषित किये जाते है- जैसे पाठ के अंत में शिक्षक द्वारा लिखकर ही गृहकार्य दिया जाता है।
    • अभिभावकों व शिक्षकों के मध्य सम्प्रेषण लिखित रूप से होता है। विद्यार्थियों की अधिगम संबंधि समस्याओं व विद्यालय में उसके व्यवहार से संबंधित संदेश, सूचनाएँ लिखित रूप से शिक्षक ही अभिभावकों को संप्रेषित करता है।
    • सामान्यतः विद्यालय के अन्दर प्रधानाध्यापक, शिक्षकों, उच्च अधिकारियों व अभिभावकों व प्रबंध समिति के सदस्यों के बीच सम्प्रेषण लिखित संदेशों द्वारा होता है। उन्हें Circulars, आदेश, Minutes, प्रतिवेदन आदि नाम दिए जाते है।

 परिपत्र (Circulars)

  • विद्यालयों में परिपत्रों के द्वारा सम्प्रेषण होता है। Circular लिखित सम्प्रेषण के माध्यम होते है। विद्यालय प्रबंधन में परिपत्रों का अत्यधिक महत्व होता है। क्योंकि इनके द्वारा ही संस्था प्रधान व अन्य उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों से लिखित रूप में सम्पे्रषण करते है। 
  • जब एक ही प्रकार की सूचना को किसी समूह में सम्प्रेषित करना  हो तब Circulars या परिपत्रों का प्रयोग किया जाता है।
  • Circulars समजजमते के द्वारा समय तथा धन की बचत होती है। विद्यालयों में भी इस प्रकार के परिपत्रों का उपयोग लिखित सम्प्रेषण के रूप में किया जाता है। जैसे विद्याालय के प्राचार्य के Senior teacher की meeting बुलानी है तो वो सबसे व्यक्तिगत रूप से न मिल कर एक परिपत्र के माध्यम से उन्हे इसकी जानकारी इस परिपत्र के माध्यम से उन्हे इसकी जानकारी देते है, उद्ददेश्य, समय व अन्य जानकारी इस परिपत्र द्वारा संप्रेषित की जाती है। यह एक सूचनात्मक पत्र होता है।


सूचना पत्र (Notice)

    किसी महत्वपूर्ण जानकारी से सम्बधिंत व्यक्ति समुह को अवगत कराने के लिए सूचना पत्रों या notice के माध्यम से सम्प्रेषण किया जाता है।

    सूचना पत्र वह सम्पे्रषण का माध्यम है जिससे किसी व्यक्ति समूह को हो चुकी घटना के बारे में नवीनम जानकारी व होने वाले कार्यक्रम के बारे में जानकारी दी जाती है।

  • नोटिस में सबसे ऊपर heading आता है, नोटिस सदैव कम से कम शब्दों मे अधिक से अधिक जानकारी देने का प्रयास करता है।
  • नोटिस में नीचे notice भेजने वाले यानि विद्यालय में प्राचार्य होता है उनके हस्ताक्षर तथा दिनांक का होना आवश्यक होता है।
  • नोटिस को किसी public place/Notice बोर्ड पर लगाया जाता है।


आदेश पत्र (Order)

कार्यलय आदेश लिखित सम्पे्रषण का ऐसा माध्यम जो किसी सक्षम अधिकारी द्वारा ही किसी व्यक्ति या व्यक्ति समुह को उनके कार्य, समय, कार्य में सुधार व अन्य गतिविधियों को निर्देशित करने के लिए आदेश पत्रों का प्रयोग किया जाता है।

अ. ये आदेशात्मक कार्यवाही से सम्बन्धित होता है।

ब. इस पत्र के अन्त में उच्चअधिकारी के हस्ताक्षर तथा अन्य  सम्बन्धित,अधिकारियों के approval की जानकारी दी जाती है।

स. इसे व इससे दिए गए निर्देशों को मानने के लिए सम्बधिंत व्यक्ति बाध्य होती है अन्यथा उनके खिलाफ कार्यवाही की जा सकती है।


प्रतिवेदन(Report)

    विद्यालय की गतिविधियों क बारे में संबंधित शिक्षक अन्य विद्यालय प्रबंधन समिति के सदस्य वार्षिक या अर्द्धवार्षिक एक प्रतिवेदन या Report तैयार करते है, प्रतिवेदन में विद्यालय में हुई गतिविधियों तथा कार्यकलापों का विवेचन किया जाता है। तथा इसके अतिरिक्त शैक्षिक वातावरण व भौतिक समस्याओं व गुणवत्ता का आंकलन किया जाता है तथा अनुशखाएँ तथा सुझाव भी दिए जाते है।

    वर्तमान में विद्यालयों में एक प्रभावी प्रतिवेदन तैयार करने में शिक्षकों की भी अति महत्वपूर्ण तैया करने में शिक्षकों की भी अति महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। प्रतिवेदन लिखित सम्प्रेषण का उत्तम माध्यम होता है, जिसके माध्यम से सम्बन्धित विषय की विस्तृत जानकारी व सुझाव सम्प्रेषित किये जा सकते है।

विवरण (Minutes)

विद्यालय में होने वाले लिखित सम्प्रेषण में Minutes(Meeting Minutes) का भी अति महत्वपूर्ण स्थान होता है। विद्यालय प्रबंधन व प्रशासन को सूचारू रूप से संचालित करने के लिए समय-समय पर गोष्ठियों (Meetings) के उद्देंश्यों विद्यालय संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों लिए गए, निर्णयों, सदस्यों द्वारा दिए सुझावों आदि सभी घटनाक्रमों का लिखित विवरण ही Minutes कहलाता है।

अ. संगोष्ठि (बैठक) विवरण में यह भी लिखा जाता है कि एक ही विषय पर पहले भी बैठके हो चुकी हो तो पिछली बैठकों के मिनट्स को भी ध्यान में रखा जाता है।

ब. Meeting Minutes- में सभापति तथा अन्य उपस्थित सदस्यों के बारे में भी जानकारी लिखी जाती है।

ब्लॉग को like और subscribe जरूर करे । 

comment box मैं अपने शहर या गांव का नाम अवश्य लिखे। 

Dr. D R BHATNAGAR 

प्रभावी प्रस्तुतीकरण(Effective Presentation)

प्रभावी प्रस्तुतीकरण
Effective Presentation


    कक्षा में आप का प्रस्तुतीकरण तभी सफल होगा जब सम्प्रेषण प्रभावी हो। ’’प्रस्तुतीकरण वह प्रक्रिया है। जिसके अन्तर्गत सम्प्रेषणकत्र्ता अपने विचारों, सुचनाओं को वर्णनात्मक, क्रियात्मक व रचनात्मक तरिके ध्से किसी व्यक्ति समुह में सम्प्रेषित करता है।’’

(1) सम्प्रेषण कत्र्ता का पूर्वाभ्यास अभ्यास तथा पूर्व तैयारी।

(2) विषय संबंधि जानकारी

(3) योजना बनाना- विषय-वस्तु (content) को क्रमबद्ध तरिके से प्रस्तुत करना।

(4) दृश्य-श्रव्य साधनों का प्रयोेग

(5) श्याम पट्ट का प्रभावी उपयोग

(6) शिक्षक की विषय में रूचि होना।

(7) शिक्षका का उसक व्यवसाय के प्रति निष्ठा तथा सम्मान होना।

(8) अशाब्दिक सम्प्रेषण का उचित प्रयोग।

(9) विद्याथियो की सहभागिता-सम्प्रेषण द्विधुव्रीय प्रक्रिया होती है।

(10) भाषा का प्रभावी तथा दोष रहित होना।

(11) उच्चारण स्पष्ठ तथा स्वर का कक्षानुकुल तथा स्पष्ठ होना।

(12) बोलने की गति तथा स्वरमान (Pitch) व लहजा (tone) का नियंत्रित होना।

(13) विषय वस्तु का सही संगठन।

(14) कक्षा का वातावरण सुविधायुक्त होना।

(15) पृष्ठपोषण - कक्षा में प्रश्नों द्वारा

(16) आत्मविश्वास। 







 

श्रव्य-दृश्य सम्प्रेषण (Audio-visual Communication)

श्रव्य-दृश्य सम्प्रेषण 
Audio-visual Communication

    श्रव्य-दृश्य सम्प्रेषण Audio visual  सम्प्रेषण मे श्रव्य-दृश्य साधनों से सम्प्रेषण किया जाता है। कक्षा-कक्ष में Audio visual साधनों द्वारा किया गया सम्प्रेषण अधिक प्रभावी होता है। 

A Picture is worth a thousand words, (English idiom) 

जटिल सामग्री को अगर हम दृश्य-श्रव्य साधनों जैसे slide presentation, Videos, electronic white board पर picture, grapes, charts दिखाकर short films बना कर समझाते है। तो इस प्रकार से सम्प्रेषित की गई सुचनाएं, तथ्य, ज्ञान बच्चों के मस्तिष्क में स्थाई होता है तो इस प्रकार से कक्षा-कक्ष में शाब्दिक सम्प्रेषण के बजाए Audio visual साधनों से सम्प्रेषण में सहायता ली जाए तो अधिगम जल्दी, सुगमता से व स्थायी होता है। बच्चें जल्दी भूलते नही है। कक्षा-कक्ष में सम्प्रेषण मुख्यतः लिखित या मौखिक होता है। लेकिन जहाँ पर लिखित या मौखिक सम्प्रेषण काफी न ये वहाँ दृश्य-श्रव्य सम्प्रेषण द्वारा शिक्षण कार्य किया जा सकता है। 

चार्ट- विद्यार्थियो को शिक्षा चार्ट के माध्यम से भी दी जाती है इसका प्रयोग तथ्यात्मक एंव सैदन्तिक संकल्पनाओं को प्रभावी ढ़ग से प्रदर्शन करने में किया जाता है। चार्ट अधिकतर तालिका, चार्ट, समय, तालिका, चार्ट, चित्र चार्ट, आलेख चार्ट, वृक्ष चार्ट, संगठन चार्ट आदि।

ओवर हैड़ प्रोजेक्टर- इस उपकरण के द्वारा किसी भी शिक्षण सामग्री को बड़े पर्दे पर लिया जा सकता है। जिसके माध्यम से सहायक सामग्री व शिक्षण बिन्दु  को सम्मिलित रूप से प्रभावित तरिके से प्रस्तुत किया जाता है।

कम्प्यूटर- यह आधुनिकता मशीन है। जिसका प्रयोग अनुदेशन हेतु भी लिया जाता है शिक्षण के क्षेत्र में कम्प्यूटर अनुदेशन शोध एंव परिक्षा के कार्य में उपयोगी सिद्ध होतो है सही व गलत अनुक्रियाओं को ज्ञान कम्प्यूटर द्वारा किया जाता है इससे पुनर्बलन मिलता है गलत अनुक्रिया होने पर भी विद्यार्थी सीखते है।

रेडियों और ट्रांजिस्टर- ये दोनों ही शिक्षण के श्रव्य साधन है आजकल रेडियों प्रसारण सुनना प्रत्येक व्यक्ति की रूचि बन गया है। शिक्षण हेतु भी रेडियों प्रयोग बढ़ता जा रहा है। कई बार रेडियों अथवा टेलीविजन के प्रसारण बड़े व्यक्तियों के भाषण अथवा इस प्रकार के कुछ प्रसारित द्वारा कक्ष़्ाा शिक्षण के लिए उपयोगी होता है। इससे बालक के सामान्य ज्ञान में वृद्धि होती है। यह एक शिक्षा प्रसारित करने की अनौपचारिक शिक्षण प्रक्रिया है।

दूरर्दशन- दूरदर्शन संचार माध्यम साधन की शिक्षा की अनौपचारिक प्रक्रिया है। इयये साक्षरता सम्बन्धी विषयों का कार्यक्रम आयोजन किया जाता है। जिससे ग्रहणी असाक्षर, वृद्ध, बालक, युवक मे सभी साक्षर होते है। नेटवर्क कार्यक्रम के अन्तर्गत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा विभिन्न सूचनाओं का सम्प्रसारण किया जाता है। जो विद्यार्थीयो के लिए उपयोगी है इसके माध्यम से विद्यार्थी चित्र को देखने के साथ-साथ सुनकर भी ज्ञान प्राप्त करते है। जिससे विद्यार्थी को जल्दी समझ में आ गया है। दूरर्दशन क माध्यम से शिक्षा को बढ़ावा मिल जाता है। शिक्षण कार्य क साथ-साथ अध्यापक द्वारा तैयार किये गये कौशलों को भी सीखता है जिससे बालक प्रभावित होता है। दूरदर्शन का प्रयोग पहले दिल्ली में 1956 में किया गया अब इसका उपयोग सारे विश्व में हो जाता है।

 

विडियो कैसेट- शिक्षक द्व़ारा किए गए शिक्षण की वीडियों कैसेट करके एक साथ हजारों बालको को शिक्षण द्वारा प्रदान किया जा रहा है। बालको का ध्यान केन्द्रित होता है। विभिन्न दृश्य-श्रव्य सामग्रीयों का प्रयोग करके कक्षा शिक्षण में सुधार लाया जा सकता है। विद्यार्थी को प्रभावित करने तथा अधिक अधिगम हेतु वीडीयों कैसेट महत्वपूर्ण है जिससे उसे अपनी कमजोरी का पता चलता है। और वह सुधारने का प्रयास करता है। जिससे कक्षा में प्रभावी शिक्षण कराने में सफलता मिलती है।

 




 

सुनने तथा बोलने का कौशल(Listening & Speaking Skills)

सुनने तथा बोलने का कौशल
Listening & Speaking Skills



    सम्प्रेषण में श्रवण एवं वाचन की अति- महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। श्रवण प्रभावी सम्प्रेषण की कुंजी (Key) है श्रोता (Student) सम्प्रेषित सुचनाओं का किस तरह से अर्थ लगाते है निहितार्थ समझते है यह ही सम्प्रेषण को सफलता को बताता है। सम्प्रेषण एक द्विध्रुवीय प्रक्रिया होती है। जिसमें वक्ता का वाचन कौशल में निपुण होना आवश्यक है वह किस तरह से सुचनाओं का आदान-प्रदान करता है कि कक्षा कक्ष में शिक्षण अधिक से अधिक प्रभावी हो सके।

सम्प्रेषण को सफल बनाने में शिक्षक का श्रवण एवं वाचन कौशल में अच्छा होना आवश्यक होता है।

श्रवण में (1) सुनना, (2) समझना तथा (3) विचार या तथ्य के निहितार्थ को समझना जो कि प्रेषक सम्प्रेषित करना चाहता है।

सुनने तथा बोलने की बाधाएँ
Barriers to Listening & speaking

ऐसे कारण जो सम्प्रेषण को सफल बनाने में रूकावटें डालते है जिससे सम्प्रेषण प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो पाती है। संप्रेषित तथ्यों सुचनाओं को शिक्षक संप्रेषित करता है परन्तु किन्ही कारणवश वह विद्यार्थियों द्वारा ग्रहण नही कर पाते है ये सम्प्रेेषण में आनें वाली बाधाएँ कई हो सकती है।

(1) शारीरिक अक्षमताएँ- वाचन दोष, दृष्टि दोष, श्रवण दोष।

(2) भाषायी बाधाएँ- भाषायी विभिन्नता या भाषा का बोधगम्य न होना संप्रेषण को प्रभावित करता है।

(3) मनोवैज्ञानिक बाधाएँ- बालक का पिछड़ा होना, या मंदबुद्धि होना।

(4) पर्यावरणीय बाधाएँ- कक्षा- कक्ष का भौतिक वातावरण सुविधायुक्त न होना।

(5) अभिवृत्तियात्मक बाधाएँ- विद्याार्थियों की रूचि ना होना संप्रेषित विषय वस्तु में।

(6) संवेगात्मक बाधाएँ- क्रोध, ग्लानि व अन्य संवेगों की अधिकता होने पर विद्यार्थि कक्षा-कक्ष में पूर्ण ध्यान केन्द्रित नही कर पाता और संप्रेषण में बाधा आती है।

7) सम्प्रेषण माध्यम की गुणवत्ता में कमी- सम्प्रेषण माध्यम वह मार्ग है जिसमें संदेश भौतिक रूप से प्रेषित होता है जैसे रेड़ियों, टेलिविजन, कम्प्यूटर अगर इन माध्यमों की गुणवत्ता में कमी होती है। यह भी सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न करता है।

(8) सम्प्रेषण से संबंधित स्तर की बाधाएँ- सम्प्रेषित कि जाने वाली विषय- वस्तु संग्राहक के मानसिक स्तर के अनुरूप होनी चाहिए।

(9) संदेश की विकृतिया- संपे्रषित संदेश मे ही अगर विकृतिया हो जैसे अस्पष्ट होना, अपूर्ण संदेश होने पर यें संदेश की विकृतिया कहलाती है और ये सम्प्रेषण में बाधा पहुँचाती है।











 

सम्प्रेषण के 7C

सम्प्रेषण के 7C
7 C's of Communication


    मानव जीवन की अनिवार्य आवश्कताओं में सबसे प्रमुख है- 'संचार'। मानव कभी घर के अंदर, तो कभी घर के बाहर, कभी कार्यालय में, तो कभी दुकान में, कभी बस स्टैण्ड में, तो कभी चलती ट्रेन में, कभी परिजनों के साथ, तो कभी सहकर्मियों के साथ, कभी ग्राहकों के साथ, तो कभी वरिष्ठ अधिकारियों के साथ, कभी मौखिक, तो कभी लिखित, कभी शब्दों में, तो कभी संकेतों में संचार करता है। संचार विशेषज्ञ 'फ्रांसिस बेटजिन' ने प्रभावी संचार के लिए 7Cs को महत्वपूर्ण बताया है, जिसका उपयोग कर संचारक बड़े ही आसानी से प्रापक के मस्तिष्क में अपनी बात (संदेश) को पहुंचा सकता है। 

7Cs से तात्पर्य है :-

          1Cs  :   Clarity  (स्पष्टता) 
          2Cs  :  Context (संदर्भ)
          3Cs  :  Continuity (निरंतरता)
          4Cs  :  Credibility (विश्वसनीयता) 
          5Cs  :  Content (विषय वस्तु) 
          6Cs  :  Channel  (माध्यम)
          7Cs  :  Completeness (पूर्णता) 

1. स्पष्टता Clarity:

    वह संदेश प्रापक को आसानी से समझ में आता है जिसमें स्पष्टता होती है। अत: सम्प्रेषण के लिए संदेश की संरचना सरल से सरल तथा सामान्य से सामान्य शब्दों में करना चाहिए। सरल व सामान्य शब्दों में सम्प्रेषित संदेश के अर्थो को समझने में प्रापक को परेशानी नहीं होती है। संचारक से प्रापक स्पष्ट शब्दों में संदेश सम्प्रेषित करने की अपेक्षा भी रखता है। यहीं कारण हैं कि उलझाऊ तथा मुहावरा युक्त संदेश को प्रापक नजर अंदाज कर देता है। 
2. संदर्भ Context
    संदेश में संदर्भ का होना आवश्यक है, क्योंकि संदर्भ से स्वत: ही संदेश की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। संदर्भ के कारण संदेश में गलती होने की संभावना कम होती है। यदि किसी कारण से गलती हो भी जाती है तो वह आसानी से पकड़ में आ जाती है। संदर्भ के कारण सम्बन्धित पक्ष की सहभागीता भी सिद्ध होती है।
3. निरंतरता Continuity :
    संचार कभी समाप्त न होने वाली एक अनवरत् प्रक्रिया है, जिसके संदेश में एक साथ कई तथ्यों का समावेश होने की स्थिति में निरंतरता का होना आवश्यक है। यहां निरंतरता से तात्पर्य मुख्य तथ्य के बाद क्रमश: कम महत्वपूर्ण, उससे कम महत्वपूर्ण, सबसे कम महत्वपूर्ण तथा अंत में बगैर महत्व के तथ्य से है। प्रभावी संचार के लिए आदर्श संदेश वह होता है, जिसमें महत्वपूर्ण तथ्यों की पुनर्रावृत्ति होती है। इसका लाभ यह है कि यदि पहली बार में संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश के अर्थ को किसी कारण से प्रापक समझ नहीं पता है तो दूसरी या तीसरी बार में अवश्य ही समझ लेता है।  
4. विश्वसनीयता Credibility:
    संचार प्रक्रिया का मूल आधार विश्वास है, जो संचारक की नियत पर निर्भर करता है। संदेश के विश्वसनीय होने पर प्रापक के मन में संचारक के प्रति अच्छी छवि बनती है। एक समय ऐसा भी आता है, जब संचारक द्वारा सम्प्रेषित संदेश की गारंटी प्रापक स्वयं दूसरों को देने लगता है। इस दृष्टि से खरा न उतरने वाले संचारकों को प्रापक शीघ्र ही नजर अंदाज करने लगते हैं। अत: प्रभावी संचार के लिए संदेश में विश्वसनीयता का होना आवश्यक है। 
5. विषय वस्तु Content:
    प्रापकों का निर्धारण संदेश की विषय वस्तु के आधार पर भी किया जाता है। अत: आदर्श संदेश की विषय वस्तु प्रापकों की स्थिति, कला, संस्कृति आदि के अनुरूप तैयार करना चाहिये। इससे संचारक के प्रति प्रापक का विश्वास बढ़ता है। 
6. माध्यम Channel:
    संचार प्रक्रिया में माध्यम की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि परिस्थिति, प्रापक और संदेश के अनुसार माध्यम की प्रभावशीलता घटती-बढ़ती रहती है। अत: प्रभावी संचार के लिए माध्यम का चुनाव संदेश और प्रापक की स्थिति को ध्यान में रखकर करना आवश्यक है। संचारक को ऐसे माध्यम का चुनाव करना चाहिए, जिसकी प्रापक के बीच पहुंच होने के साथ-साथ लोकप्रियता भी हो। नये माध्यमों का चुनाव काफी सोच-विचार कर करना चाहिए। कई बार नये संचार माध्यम अप्रभावी साबित होते हैं। 
7. पूर्णता Completeness:
    प्रभावी संचार के लिए संदेश में पूर्णता का होना आवश्यक है। यहां पूर्णता से तात्पर्य सम्पूर्ण जानकारी से है। जिस संदेश में पूर्ण या सम्पूर्ण जानकारी होती है, उसे ग्रहण करने के उपरांत प्रापक आत्म-संतोष महसूस करते हैं। 



 

शिक्षण पर अनुसंधान के प्रतिमान – Gage, Doyle और Shulman

 शिक्षण पर अनुसंधान के प्रतिमान – Gage, Doyle और Shulman   1. Ned A. Gage का प्रतिमान जीवन परिचय: पूरा नाम: Ned A. Gage जन्म: 1917...