गुरुवार, 2 फ़रवरी 2023

भारतीय वैज्ञानिक - जगदीश चन्द्र बोस

 भारतीय वैज्ञानिक - जगदीश चन्द्र बोस 

 JAGADISH CHANDRA BOSE


    जगदीश चन्द्र बोस भारत के महान वैज्ञानिकों में से एक है। उन्हें महाभारत के कर्ण से बहुत प्रेरणा मिली जिसके आधार पर उन्होंने जीवन में संघर्ष करते रहना सीखा, जगदीश चन्द्र बोस हार से ही विजय का जन्म होना मानते थे। 

सभी देश के विद्वान वैज्ञानिकों ने श्री बोस को आदर्श वैज्ञानिक माना है। 

जन्म- जगदीश चन्द्र बोस का जन्म 30 नवम्बर 1858 को भारत के मैमन सिंह जिले में हुआ जो वर्तमान में बांग्लादेश में है। यहाँ इनके पिता डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। 

पारिवारिक स्थिति -जगदीश चन्द्र बोस का परिवार एक सुशिक्षित एवं धार्मिक विचारों वाला परिवार था, जिसमें रामायण और महाभारत पढ़े जाते थे। उनके पिता का नाम भगवान चन्द्र बोस तथा माता का नाम वामा सुन्दरी बोस था इनके पिता बड़े ही उदारता पूर्ण व्यवहार के धनी थे। 

शैक्षिक पृष्ठभूमि -जगदीश चन्द्र बोस के पिता ने उन्हें अंग्रेजी माध्यम के बजाय हिन्दी की जानकारी रखने पर बल दिया। उन्होंने बोस को हिन्दी स्कूल में दाखिल कराया क्योंकि उनका कहना था कि पहले मातृभाषा का ज्ञान होना जरूरी है, बाद में अन्य भाषाओं का। प्रारम्भिक अध्ययन के उपरान्त बोस ने अपनी नौ वर्ष की अल्पायु में कोलकत्ता के हेयर स्कूल तथा सेंट जेवियर स्कूल में यूरोपीय तथा भारत में रह रहे अंग्रेज छात्र पढ़ते थे। उनके साथ बोस का मन उदास रहने लगा लेकिन फिर भी उन्होंने उनसे मित्रता रखी। खाली समय में वे विज्ञान की चीजों के बारे में भी मशगूल हो जाते। 


बोस सन् 1880 में उच्च शिक्षा के लिए इग्लैण्ड गए। वहाँ उन्होंने चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन शुरू किया ही था कि उनका स्वास्थ्य अचानक बिगड़ गया और पढ़ाई छूट गई। फिर वे कैम्ब्रिज में क्राइस्ट चर्च काॅलेज में प्रकृति विज्ञान के अध्ययन में जुट गए। यहाँ के दो अध्यापकों ने उनका मार्गदर्शन किा। ये अध्यापक प्रकृति विज्ञानी प्रोफेसर सिडनी विनिस और भौतिक विज्ञानी लाॅर्ड रैले थे। 

अध्यापन कार्य -जगदीश चन्द्र बोस सन् 1885 में शिक्षा पूरी कर भारत लौट आए उन्होंने कोलकत्ता के प्रेसीडेंसी काॅलेज में भौतिकी का प्राध्यापक नियुक्त कर दिया गया। 

बोस का विवाह -उनका विवाह सन् 18  के जनवरी माह में अबलादास के साथ हुआ था। वे प्रसिद्ध वकील दुर्गा मोहनदास की पुत्री थी। उनके भाई देशबंधु चितरंजनदास थे। वे विवाह के समय मद्रास मेडिकल काॅलेज में चिकित्सा शास्त्र का प्रशिक्षण ले रही थी किन्तु इनकी जीवन संगिनी बनने के लिए उन्होंने पढाई बीच में ही छोड़ दी। विवाह के पश्चात् उन्होंने इनके सुख-दुःख में बराबर का साथ दिया। 

शोध कार्य -जगदीश चन्द्र बोस ने राॅयल सोसायटी के शरीर क्रिया विज्ञानियों से भी संघर्ष किया, जिसमें उनकी ही विजय हुई। इसके लिए जगदीश चन्द्र बोस ने दो वर्ष कड़ी मेहनत करके ‘रिसपान्स इन द लिविंग एण्ड नाॅन लिविंग‘ नामक मोनोग्राफ छपवाया जिसे देखकर आलोचक विज्ञानी हत प्रत्र रह गये। शेष अप्रकाशित भाषण बाद में प्रकाशित करके सभी देशों में भेजा गया, उन्हें राॅयल सोसायटी ने अपना सदस्य बना लिया। यह घटना सन् 1920 की है। 

विद्युत तंरग पर शोध -विद्युत चुम्बकीय तरंगों पर इंग्लैण्ड में ओलिवियर लाॅज तथा जर्मनी में हिनरिच हट्र्ज नामक वैज्ञानिकों ने भी शोध किए थे। बाद में उन तंरगों का नाम ‘हर्ट्जयन तंरगें‘ रख दिया गया। बोस ने इसके पश्चात् शाॅर्ट रेडियों तंरगों की खोज की। उन्होंने तंरगो पर मापन मि.मी. स्तर पर नापा, जबकि लाॅज में सेन्टीमीटर तथा हट्र्ज ने डेसीमीटर पर कार्य शुरू किया था। 

बोस ने पटसन के सुक्ष्म रेशों जैसी सुक्ष्म सामग्री से विद्युत तंरगो के धु्रवण को ग्रहण करने वाले उपकरण बनाने में भी सफलता प्राप्त की। उनकी सहायता से विद्युत उपकरण रिसीवर तैयार किया गया था, जो ‘कोहेरर‘ कहा जाता था। इस यन्त्र से व्यापारियों को काफी लाभ पहुँचा। ये रिसीवर समुन्द्री जहाजों पर भी कार्य सिद्ध हुए थे। 

बोस के समय मार्कोनी ने भी अंग्रेजी और यूरोपीय वैज्ञानिकों के सहयोग से लम्बी दूरी तक रेडियों तंरगे भेजने वाला यंत्र बना लिया था। 

बोस का बतौर का यह अविष्कार सन् 1885 में कोलकत्ता ‘नगर भवन‘ में पुष्टिपूर्ण शोधकार्य मान लिया गया। उन्होंने यह कार्य अपने स्वनिधि उपकरण से विद्युत तंरगों को दो कमरों की दीवार पार करके तीसरे कमरे में पहुँचकर एक तो एक पिस्तौल चला कर बारूद के ढेर में विस्फोट करके दिखाया। 

उन्होंने सन् 1886 में विद्युत तंरगो का आकार (द्धेध्र्य) निकालने के लिए एक पृष्ट लिया जिस पर बारीक तीन रेखायें खीची गई, फिर पृष्ट से विवर्तन जाली से दैध्र्य निकालने के लिए प्रकाश किरणों का परावर्तन कराकर प्रतिबिम्ब प्रदर्शित किया गया। उन्होंने इस परीक्षण में पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली। फिर वे विज्ञान के अन्य शोध कार्य करने लगें। उन्होंने शाॅर्ट वे व विकिरण क्षेत्र में अध्ययन आंरम्भ कर दिया। उनके सैद्धान्तिक शोधों की लंदन विश्वविद्यालय में काफी चर्चा हुई। उन्होंने अपना एक शोधलेख तैयार किया। जिसे राॅयल सोसायटी को प्रकाशनार्थ दे दिया। उन्होंने पौधो के अध्ययन पर अनेक उपकरण बनाये थे उन्होंने जीव-विज्ञान के अलावा भौतिक-विज्ञान पर भी शोधकार्य किये। 

उपलब्धियाँ व पुरस्कार -

यूरोप में सम्मान -सन् 1896 में बोस यूरोप वैज्ञानिकों के निमन्त्रण पर इंग्लैण्ड गये। उनके शोधपूर्ण भाषण और कार्यो की प्रशंसा करते हुए ‘फ्रेंच अकादमी आॅफ साइंस‘ के अध्यक्ष प्रोफेसर ए.कोर्नू ने कहा कि - ‘करने का प्रयास करना चाहिए, जो विज्ञान और कला की मशाल थी। फ्रांस में हमस ब आपकी प्रशंसा करते है और उत्तरोत्तर उन्नति करते रहने की कामना भी।‘

बोस कोहेररों (रिसीवरों) के शोध कार्य में जुट गए, उन्हें इस कार्य में अपनी विद्युत तंरगो में कुछ शिथिलता महसूस हुई। उन्हें लगा इससे उस प्रवाह में कमी होकर उनकी संवेदन शीलता नष्ट हो सकती है। यह शिथिलता जीवों में भी मांसपेशियों जैसी है। इस परीक्षण के लिए उन्होंने एक उपकरण ‘ कृत्रिम रेटिना‘ अर्थात् कृत्रिम दृष्टि पटल तैयार किया। उन्होंने जब यह सारा प्रयोग किया तो उनकी दृष्टि अपने ग्राफ पर डाॅक्टर वालर की तरह प्राप्त हुई वक्ररेखा पर पड़ी। उन्होंने निर्जीव वस्तुओं पर रासायनिक क्रिया करके प्रयोग की संपुष्टि की। अतः उन्होंने स्पष्ट किया कि संजीव पदार्थो एवं निर्जीव वस्तुओं में कोई अधिक अंतर नहीं है। 

सन् 1900 के जुलाई माह में पेरिस के इटंरनेशनल कांग्रेस ऑफ फिजिक्स में वैज्ञानिकी के समक्ष अपना प्रयोग सिद्ध करने के बाद उनकी इच्छा हुई कि कृत्रिम रेटिना को बेतार संचार में व्यवसायिक प्रयोग के लिए पेटेंट कराया जाये परन्तु कुछ वैज्ञानिकों के विरोध के कारण यह प्रस्ताव माना नहीं गया। इस समय इस सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द भी मौजुद थे, इन्होंने बोस को भारत का महान सपूत कहकर सम्मानित किया था।        

10 मई 1901 को लंदन में राॅयल सोसायटी ऑफ साइंस हाल में बोस अपना पेड़ पौधों की संवेदन शीलता का प्रयोग दिखा रहे थे पौधों की जडे़ ब्रोमाइड अम्ल में डुबी थी उपकरण पौधे से जुड़ा था कि प्रतिक्रिया होते ही स्क्रीन पर हल्के धब्बे दिखने लगे जिनसे पौधे की संवेदनशीलता जाहिर हो रही थी, पौधे की नब्ज की धड़कन जिसे वह बिन्दू पहले घड़ी के पेण्डुलम की नियमितता से आगे पीछे अंकित कर रहा था, धीरे-धीरे अनियमित और असन्तुलित होती चली गई। और वह धब्बा तीव्रता से हिलने लगा फिर अचानक ही थोड़े समय बाद उसकी सभी प्रक्रियाएँ शून्य हो गई तथा वह पौधा मर गया यह प्रयोग देखकर सभी वैज्ञानिक और दर्शक आश्चर्य में डुब गये वे बोस के शोधपूर्ण विवेचन कार्य की प्रशंसा कर उठे। भौतिक विज्ञानी सर राॅबर्ट आस्टिन ने कहा मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई कि धातुओं में भी जीवन होता है, मुझे यह ज्ञान नहीं था। 

जीव-जन्तुओं एवं पौधों के हृदय की क्रिया के जानने के लिए उन्होंने अनेक सहायता स्वचालित रिकार्डरों के अविष्कार किये। 

 सम्मान एवं निधन -जगदीश चन्द्र बोस को डाक्टरेट की अनेक उपाधिया मिली उन्हें अनेक देशों के विज्ञान संस्थानों का सदस्य बनाया गया उनकी 23 नवम्बर 1937 को मधुमेह एवम् रक्त चाप की बीमारियों से पीड़ित होने के कारण मृत्यु हो गई उस समय वे 79 वर्ष के थे। 

जगदीश चन्द्र बोस हमारे देश के महान वैज्ञानिक ही नहीं बल्कि एक अमर राष्ट्र चेतना थी, जो कि उन्होंने अपने कार्यो से सिद्ध कर दिया। 

उन्होंने घोषणा की हमें पश्चिमी देशों को छोड़कर अपना मूल तथ्य नहीं गवांना चाहिए। देश के नए आविष्कार ही भविष्य की पूंजी है। मैं इसको जीवित रखने के लिए राष्ट्र की मान्यताओं को ही बल व स्थान दूंगा। इसके लिए में चाहता हूँ कि समस्त वैज्ञानिकों द्वारा इस संस्थान को सहयोग दिया जाये व इसे विकसित किया जाए ताकि उन्हें अपने शोध कार्य में नया संबल मिले, नए अनुसंधान कार्यो की जानकारी मिले। 

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Dr. D R BHATNAGAR 

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