शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

भारतीय पुरावनस्पतिविद् व भूविज्ञानी - डॉ. बीरबल साहनी (Indian Paleobotanist and Geologist - Dr. Birbal Sahni)

 भारतीय पुरावनस्पतिविद् व भूविज्ञानी - डॉ. बीरबल साहनी
Indian Paleobotanist and Geologist - Dr. Birbal Sahni


एक महान वैज्ञानिक जिन्होंने अपना पूरा जीवन ज्ञान को पाने के लिए समर्पित किया जिन्होंने ऊँचे से ऊँचे लोक प्रशासनिक पदों को अस्वीकार किया। वे प्रतिभाशाली थे उन्होंने हर क्षैत्र में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी। वह एक महान शिक्षक होने के साथ - साथ एक महान व्यक्ति भी थे। 

यह पंक्तियों एम. जयाम अडिग ने डाॅ. बीरबल साहनी के लिए लिखी थी।

        डाॅ. बीरबल साहनी विश्वव्याख्यात एक भारतीय पुरावनस्पतिविद् थे। इन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के जीवाश्म पौधे सम्बन्धी विज्ञान को प्रगति के पथ पर बढ़ाया।, वे एक भूविज्ञानी भी थे जिन्होंने पुरातत्व में रुचि ली। उन्होंने लखनऊ, भारत में बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान की स्थापना की। इन्हें डॉक्टरेट की उपाधियाँ और कई पुरस्कारो से सम्मानित भी किया गया। 

परिचय -मौलाना अब्दुल कलाम आजाद जो स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री थे। उन्हें अपनी सत्ता में शिक्षा के क्षैत्र में एक माने हुए वैज्ञानिक की तलाश थी जो शिक्षा मंत्री पद को भली-भांति संभाल सके। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने उन्हें शिक्षा मंत्री पद का प्रस्ताव दिया जिसको इन्होंने अस्वीकार कर दिया। उन्होने सरकार को पत्र लिखा की ‘‘मैं अपना सम्पूर्ण जीवन वैज्ञानिक संस्था को समर्पित करना चाहता हुँ, इसलिए मुझ पर कोई अलग जिम्मेदारी का भार न डाले।‘‘ उन्होंने कई ऊँचे से ऊँचे सरकारी पदों को ठुकरा दिया। उनके लिए इन पदों का कोई मोल नहीं था वे थे डाॅ. बीरबल साहनी - एक विश्वविख्यात महान प्राचीन वनस्पतिशास्त्र (पेल्योबाॅटनी)। 

डाॅ. बीरबल साहनी -डाॅ. बीरबल साहनी एक जागरूक नौजवान होते हुए भी कभी उन्हे लोक प्रशासनीक सेवा में कोई रूचि नहीं थी। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन विज्ञान को समर्पित किया था। डाॅ. बीरबल साहनी की रूचि प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने में थी और वे इसका प्रयत्न जीवनभर करते रहे। 

इसे अलावा उनका वैज्ञानिक खोजो को व शोध क्रियाओं को बढ़ावा देने में भी था। डाॅ. बीरबल साहनी लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रध्यापक पद पर कार्यरत थे। उन्हें जीवनोपरांत भी अपने छात्रो का प्यार मिला। डाॅ. बीरबल साहनी ने ही भारत में जीवाश्य पौधे सम्बन्धी विज्ञान को प्रगति को प्रगति पथ पर बढ़ाया। वे ही इसके मार्गदर्शक थे। 

पेल्योबाॅटनी -पेल्योबाॅटनी अर्थात् प्राचीन वनस्पति शास्त्र जिसमें जीवाश्म पौधो का अध्ययन होता है। ये जीवाश्म पौधे पृथ्वी की सतहों में तथा विभिन्न प्रकार के पत्थरों में पाये जाते थे। जीवाश्य पौधों का अध्ययन, भूतत्व विद्या विषयक तथा वनस्पति शास्त्र से जुड़ा हुआ है।

पेल्योबाॅटनी, पृथ्वी के ढ़ाचे तथा पौधो के क्रमिक विकास के रहस्यों को हल करने में सहायक है। इसके अतिरिक्त भूतकाल में महाद्वीपों की गति का होना आदि सम्बन्धी परिवर्तनों के रहस्यों की जानकारी प्राप्त करने में भी पेल्योबाॅटनी विषय सहायक है। पेट्रोलियम की खोजो तथा पेट्रोलियम व कोयले की खोजों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। 

डाॅ. बीरबल साहनी भूगर्भशास्त्र व वनस्पति शास्त्र दोनो के गुरू थे। उन्हें इस क्षैत्र में सर्वोच्च पद प्राप्त था। बचपन से ही उनकी रूचि प्रकृति की ओर थी। पर्वतों की सैर, विभिन्न प्रकार की पत्तियों का संग्रह करना, पत्थरों का संग्रह करना आदि उनके शौक थे। 

पारिवारिक स्थिति -बीरबल का जन्म 14 नवम्बर 1891 में हुआ। वे लाला रूचिराम साहनी और श्रीमती ईश्वर देवी के दूसरे पुत्र थे। बीरबल का परिवार शाहपुर जिले के एक छोटे से कस्बे बेहरा में रहते थे। (जो वर्तमान में पाकिस्तान में पश्चिमी पंजाब का भाग है।)

रूचिराम के पिता उनके बचपन में ही गुजर गए जिस कारण उन्हे कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। लेकिन वे बहुत प्रतिभाशाली छात्र थे जिसके बलबूते पर उन्होंने अपनी शिक्षा छात्रवृत्तियों के आधार पर पूर्ण की। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् वे लौहार गवर्नरमेंट काॅलेज में रसायन विषय के प्राध्यापक पद पर कार्यरत हो गये। 

बीरबल साहनी के पिता स्वदेश भक्ति व समाजसेवी थे। उन्होंने आजादी की लड़ाई में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। जिसके कारण उनके घर में उदारता, स्वदेश भक्ति, प्रचण्डता आदि। गुणों का समावेश सदा बना रहा और यही गुण बीरबल साहनी में भी थे। बीरबल साहनी की माता धार्मिक प्रवृत्ति की थी। उनका स्वप्न था कि उनके सभी बच्चो को अच्छी शिक्षा मिले। उनके पाँचों बेटो ने यूरोपीय विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अपनी बेटियों को भी शिक्षा प्रदान की। बीरबल सदैव अपने परिवार का सम्मान करते थे। बीरबल ने अपने पिता के लिए कहा था कि मुझे मेरे पिता पर नाज है और मुझे नाज है कि ‘‘मैं पुराने लकड़ी के कुन्दे में से निकला लकड़ी का पत्थर हुँ।(“A clip of the old black”)

शैक्षणिक स्थिति -बीरबल साहनी ने सन् 1911 में  B.Sc.  स्नातक की परीक्षा पास की। उनके पिता रूचिराम साहनी का सपना था कि उनके परिश्रमी पुत्र को लोकप्रशासनीक सेवा में भेजे। वे सदैव बीरबल के लिए। इंडियन सिविल सर्विसेज की जीवनवृत्ति की सोचते थे। परन्तु बीरबल को इसमें कोई रूचि नहीं थी। बीरबल ने अपने पिता से कहा था कि ‘‘मैं आपके निर्णय के खिलाफ नहीं जाना चाहता लेकिन मेरी रूचि वनस्पति शास्त्र में शोध करने की है।‘‘

बीरबल के पिता ने उनकी बात मान ली और बीरबल को केम्ब्रिज में उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए इग्लैण्ड भेजने का निर्णय ले लिया। वहाँ पर बीरबल के बड़े भाई विक्रमजीत औषधियों की पढ़ाई कर रहे थे। उन्होंने बीरबल को केमब्रिज बुलाया और वहाँ इमेनुमत महाविद्यालय में भर्ती करवा दिया। तीन दिन के भीतर ही बीरबल अपने भाई के पास लंदन चले गये। उन्हें घर वापस जाने का मन कर रहा था बस उनके आंसु ही निकलने बाकी थे। उन्हें घर की याद बहुत सता रही थी। घर से बाहर रहने में खिन्नता हो रही थी। विक्रमजीत के लिए कोई आसान काम नहीं था कि बीरबल को समझाए। विक्रमजीत ने बीरबल को वापस केमब्रीज जाकर दुबारा अपनी शिक्षा आरम्भ करने को कहा और बीरबल ने ऐसा ही किया और मन से अपने घर जाने की इच्छा पर विजय प्राप्त कर ली। 

केमब्रिज में विद्यार्थीयों व शिक्षकों के बीच सदैव अच्छा तालमेल बना रहता था। बीरबल एक बहुत ही प्रतिभाशाली छात्र थे। उन्हें कई सार्वजनिक शिक्षकों द्वारा बहुत स्नेह मिला। बीरबल साहनी 1914 में Natural Science (Botany & Zeology) में  B.Sc. की डिग्री प्राप्त की और जल्दी ही वे उत्तेजित मार्गदर्शक प्रधानाध्यापक ए.सी. सेवार्ड के अधीन शोध क्रिया में लग गये। प्रोफेसर सेवर्ड माने हुए वैज्ञानिक थे इन्हें Natural Science विषय की प्रभुत्वता प्राप्त थी। इस महान शिक्षक के अधीन कार्यरत रहकर बीरबल ने पशुओं के आकार का अध्ययन करने के शास्त्र अर्थात माॅरफालोजी और साथ ही साथ जीवाश्म पौधे के विषय में शीघ्रता से और आन्तरिक स्थिति में अध्ययन किया।  

बीरबल साहनी की भारत वापसी -भारत लौटने पर बीरबल साहनी ने एक-एक साल बनारस व पंजाब यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। सन् 1920 में शादी सावित्री से हुई जो उनके पिता रूचिराम साहनी के घनिष्ट मित्र सुन्दरदास की बेटी थी। सावित्री विज्ञान स्नातक थी और विनम्रशील थी। सावित्री बीरबल की सच्ची साथी सिद्ध हुई। हमेशा बीरबल के साथ रहकर मुश्किलों का सामना करती। चाहे वह कोई शैक्षिक भ्रमण भारत में हो या विदेशों में। सावित्री ने अपनी पूरी जिन्दगी को बीरबल के जीवन व कार्यो को सौप दी थी। 

कार्यक्षैत्र - सन् 1920 में भारत के भूगर्भशास्त्र निरिक्षकों ने कुछ जीवाश्य पौधों को निरीक्षण के लिए विदेश में विख्यात वैज्ञानिकों के पास भेजा। तब सन् 1920 में प्रो. सेवर्ड ने भारतीय निरीक्षकों के इस शोध को लेने से इंकार कर दिया और कहा कि यह कार्य बीरबल साहनी को दिया जाना चाहिए। जो कि एक योग्य भारतीय वैज्ञानिक है। बीरबल ने इस डिपार्टमेंट से एक समीप कार्यशाला बनायी थी। जो गत 12 वर्षो से चल रही थी। बीरबल साहनी के इस कार्य को देखते हुए कलकत्ता में गोंडवाना गैलरी में उनकी उध्र्वाकाय मूर्ति बनायी गई। 

सन् 1921 में बीरबल साहनी को लखनऊ में न्यूबोर्न यूनिवर्सिटी में प्रधानाध्यापक व Head of Department  पद पर नियुक्त किये गये। उसी वर्ष बीरबल साहनी के पढ़ाई के निर्धारित समय होने के बावजूद उन्होंने अपनी शोधक्रिया को निरन्तर चलने दिया। उनके इस विशिष्ट हुनर को सराहने के लिए बीरबल साहनी को केमब्रीज यूनिवर्सिटी द्वारा डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई। उन्हें सन् 1929 में Doctorate of Science की उपाधि प्राप्त हुई। बीरबल ऐसे पहले भारतीय वैज्ञानिक थे जिनको यह उपाधि दी गई थी।

कई छात्रों ने शोध करने के लिए सन् 1933 में लखनऊ यूनिवर्सिटी में वनस्पतिशास्त्र में आवेदन दिया और उसके बाद बीरबल साहनी के काॅलेज के साथियों तथा वैज्ञानिको ने उनके इस कार्य में सहयोग देना शुरू किया। 

बीरबल साहनी सदैव छात्रों का अत्यन्त शोचनीय तरिके से परिक्षा लेते और शीघ्रता व शुद्धता से उनकी असली कीमत को पहचानते। उनके महाविद्यालय के परिक्षा पत्रों में सदैव सीधे प्रश्नों तथा वैज्ञानिक ढंगो द्वारा प्रदर्शन करते थे। वे हमेशा कहते थे कि ‘‘आप क्या जानते है, उसे सीधे शब्दों में कहो।‘‘ बीरबल साहनी को अपनी भाषा पर पूर्णतया लगाम थी। वे इसके अलावा जर्मन व फ्रेंच के स्नातोत्तर छात्रों को भी पढ़ाते थे। 

बीरबल साहनी का कार्यक्षैत्र में समर्पण -सन् 1930 में बीरबल साहनी को लखनऊ यूनिवर्सिटी में कार्यसम्पादनी सभा का कार्यभार सौप दिया गया। तीन वर्ष बाद उन्हें विज्ञान विषय का अध्यक्ष बना दिया गया। यह पद उन्हें जीवन भर मिला रहा। बीरबल साहनी का मानना था कि वह छात्र जो वनस्पति शास्त्र और भूगर्भ शास्त्र दोनों विषय पढ़ चुके है, वे पेल्योबाॅटनी विषय को अच्छी तरह से अध्ययन कर सकते है। इसी के चलते सन् 1943 में उनकी प्रतिष्ठा को देखते हुए उन्हें लखनऊ यूनिवर्सिटी में भूगर्भशास्त्र का अध्यक्ष बना दिया गया। वे नौकरचाकरी व कार्यालय के कार्य से स्वतन्त्र थे। वे प्रतिभाशाली अध्यक्ष सिद्ध हुए। वे अपने साथियों तथा साथी वैज्ञानिकों को भी बिना योग्यता के कार्य नहीं सौपते थे। बीरबल साहनी के लिए योग्यता का मोल था। 

बीरबल साहनी हमेशा कहते थे कि ‘‘कला का अन्त नहीं है, समय बीतता जा रहा है और कठिन परिश्रम कभी भी नहीं मरता।‘‘ 

बीरबल साहनी यात्रा करने में अपना समय नहीं गंवाते थे। वह यात्रा के समय भी कुछ ना कुछ पढ़ना और विषय सम्बन्धि लेख बनाते थे। 

    बीरबल साहनी का प्यार और उनका सपना उनकी शोधशाला थी। जिसको वे दिन-रात मेहनत करके एक विख्यात संस्था बनाना चाहते थे। उन्होंने अपनी इस शोध संस्था को प्रोत्साहित करने के लिए एक पुरस्कार रखा, जिसका नाम ‘‘द रूचिराम साहनी रिसर्च पुरस्कार‘‘ रखा गया जो बीरबल साहनी के नाम पर उनकी याद में रखा गया। प्रत्येक वर्ष वनस्पति शास्त्र शोधकार्य में इस शोध संस्था द्वारा यह पुरस्कार दिया जाता है। प्रोफेसर साहनी के मासिक भत्ते में से जो कि विज्ञान विभाग के अध्यक्ष थे में से इकट्ठा की गयी लागत को इस पुरस्कार के लिए जमा किया जाता है। 

    वर्ष - प्रतिवर्ष वनस्पति शास्त्र में छात्रों की संख्या बढ़ती गयी और शिक्षक के लिए कक्ष कम पड़ते गये। बीरबल साहनी का भी अपना कोई कक्ष नहीं था। वे हमेशा वनस्पति शास्त्र कौतुक भण्डार में बैठा करते थे। एक बार विदेश से कोई अतिथी उनके विभाग में भ्रमण के लिए आए। उन्होंने सारे विभाग का भ्रमण किया और पूछा कि ‘‘प्रोफेसर साहनी का कार्यकक्ष कहाँ है?‘‘ अतिथी ने देखा की प्रोफेसर साहनी कौतुक भण्डार के एक कोने में मेज लगाकर कार्य करते है तो वे चिल्लाएँ - ‘‘क्या? प्रोफेसर का अपना कोई कक्ष नहीं है।‘‘ लेकिन उसके तुरन्त बाद शांत होकर सोचने लगे कि ‘‘हाँ एक महान वैज्ञानिक ॲटारी में रहने पर भी सारे विश्व का कार्य कर सकता है।‘‘ 

उपाधियाँ - बीरबल साहनी ने भारत में वनस्पति शास्त्र जनसमूह स्थापित करने के लिए कुछ महान वैज्ञानिकों से हाथ मिलाया और सन् 1921 में वनस्पति शास्त्र मण्डली को स्थापित किया। सन् 1924 में वे इस मण्डली के अध्यक्ष बने। सन् 1921 में बीरबल साहनी को भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने Botanyके लिए अध्यक्ष नियुक्त किया। केमब्रिज से लौटने पर दो साल बाद उन्हें 1926 में भूगर्भशास्त्र का अध्यक्ष बनाया गया और वे दूबारा Botany के अध्यक्ष बने। 

जब सन् 1938 में विज्ञान कांग्रेस की 25 वीं वर्षगाँठ थी। उन्हें यह सम्मान सन् 1940 तक मिला। बीरबल साहनी दो बार Natianal academy of Science  के अध्यक्ष रहे। बीरबल साहनी सभासद व उप-अध्यक्ष के रूप में Indian academy of Science और National academy instilution of Science में कार्यरत रहे। इसके अलावा कृषि विज्ञान में भी भारतीय सभा के अध्यक्ष रहे। बीरबल साहनी बैगलोर में Governing council of the Indian institution of Science के सदस्य थे और कलकत्ता में एशियटिक सोसायटिक के सहचर थे। 


बीरबल साहनी अन्तर विश्वविद्यालय परिषद् के कृर्षि सम्बन्धी शोध कार्यशाला के प्रतिनीधि बने। बीरबल साहनी ने भारत में कई विज्ञान के रहस्यों को उजागर करने के लिए सदैव अपने आप को कई विज्ञान विषय से जोड़ा रखा। 

कई भारतीय विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टरेट की उपाधियाँ मिली और कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। बीरबल साहनी ने बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में अवैतनिक प्रोफेसर के रूप में Botany विभाग में काम किया। राॅयल एशियटिक सोसायटी ऑफ बंगाल द्वारा बीरबल साहनी को बारक्ले मैडल (Barclay Medal) मिला जो उनको Botany में विशिष्ट शोध कार्य के लिए मिला था। 

    बीरबल साहनी ने सन् 1945 में राॅयल सोसायटी द्वारा आयोजित वैज्ञानिकों के सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। सन् 1947 में यूरोप और अमेरिका के शोधकार्य शाला के भ्रमण हेतु भारतीय सरकार ने बीरबल साहनी को नियुक्त किया। 

सन् 1930 और 1935 में राष्ट्रीय कांग्रेस के पेल्योबोटनी विभाग के दो बार उप-अध्यक्ष बने। बीरबल साहनी ने सम्पादन सम्बन्धी क्षैत्र में भी दैनिक पत्र निकाला जिसका नाम -“Chronica Botanica” रखा गया। बीरबल साहनी को अन्तर्राष्ट्रीय पेल्योबोटनी संघ का उपा-अध्यक्ष बनाया गया। बीरबल साहनी के अवैतनिक परदेशी सदस्य थे। सन् 1939 में लंदन की राॅयल सोसायटी के सहचर के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। यह पद/नियुक्ति विज्ञान के क्षैत्र में सबसे उच्च पदों में से भी उच्च था। बीरबल साहनी ऐसे पाँचवे भारतीय थे जिनको यह सम्मान मिला था। 

महान वैज्ञानिक की इच्छा-प्रेरणा -बीरबल साहनी का लक्ष्य सफल हो रहा था लेकिन दुष्ट भाग्य ने इस नायक से उसका अच्छा वक्त छिन लिया। संस्था के विकासात्मक कार्य ने डाॅ. बीरबल साहनी को दबाव और अधिक्याधिक प्रयत्नशील बना दिया था जो उनके स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डालता जा रहा था। 8 अप्रैल 1949 की शाम को बीरबल साहनी को दिल का दौरा पड़ा। 10 अप्रैल को उनकी मृत्यु हो गयी और संस्था ने एक किमती रत्न को सदा के लिए खो दिया। बीरबल साहनी सिर्फ 57 साल के थे। बीरबल साहनी सन् 1950 में अन्तर्राष्ट्रिय Botany विषयक कांग्रेस के अध्यक्ष नियुक्त किये गये परन्तु अफसोस वो संसार से अलविदा ले चुके थे। 

उनकी मृत्युपरान्त उनकी पत्नी सावित्री इस संसार में अकेली रह गयी। उनके कोई बच्चा भी नहीं था। परन्तु सावित्री बहुत ही बहादुर औरत थी। उन्होंने हर मुसीबत का सामना हिम्मत से किया और निश्चय किया कि अपने प्रख्यात पति के ऊँचे आदर्शो को सफल करेगी/बनाएगी और अपना जीवन शोध संस्थ के विकास को समर्पित करने का निश्चय किया। सन् 1952 के अन्त में सावित्री साहनी को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ओर से दिया गया। ओर इस संस्था का नाम सावित्री साहनी के स्वर्गीय पति के नाम पर रखा ‘‘बीरबल साहनी इंस्टीट्यूशन ऑफ पेल्योबाॅटनी‘‘। 

डाॅ. बीरबल साहनी एक महान वैज्ञानिक थे जिनका सम्पूर्ण जीवन ज्ञान को पाने में समर्पित कर दिया गया था। उन्हें विज्ञान के ज्ञान को पाने की इतनी ललक थी कि उन्होंने कई पदों को अस्वीकृत कर दिया था। डाॅ. बीरबल साहनी भारत में जीवाश्य पौधे सम्बन्धी विज्ञान के मार्गदर्शन थे। वह पेल्योबाॅटनी विषय के ज्ञाता थे। उन्होंने अपने ज्ञान के आधार पर देश ही नहीं वरन् विदेशों में भी अपनी पहचान बनायी। उन्हें देश-विदेश में कई उपाधियाँ व पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हीं के नाम पर ‘‘बीरबल साहनी इंस्टीट्यूशन ऑफ पेल्योबोटनी‘‘ नामक संस्था की स्थापना कि गयी। 

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Dr. D R BHATNAGAR 

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