शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

भारतीय वैज्ञानिक - डाॅ. प्रफुल्ल चन्द्र राॅय (Dr. PRAFULLA CHANDRA RAY)

 

डाॅ. प्रफुल्ल चन्द्र राॅय

Dr. PRAFULLA CHANDRA RAY 




    डाॅ. प्रफुल्ल चन्द्र राॅय भारत के महान् रसायन शास्त्री थे। डाॅ. राॅय केवल वैज्ञानिक ही नहीं थे अपितु उन्हें शिक्षा उद्योग, समाज-सुधार, वैज्ञानिक आर्थिक और राजनीति पुरूत्थान देवोत्थान में भी रूचि थी। वे महान् वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। इतिहास और साहित्य से डाॅ. राॅय को विशेष प्रेम था। 

डाॅ. राॅय को आधुनिक भारतीय ‘रसायन विज्ञान का जन्मदाता‘ माना जाता है।

जन्म - डाॅ. राॅय का जन्म 2 अगस्त 1861 ई. को पूर्वी बंगाल (अब बंगला देश) के रड़ौली गांव के समृद्ध जमींदार हरिशचन्द्र राय के घर पर हुआ था। रड़ौली गांव भारत - प्रसिद्ध गांव रहा है। इस क्षेत्र के राजा प्रताप द्वितीय और राजा सीताराम राय ने दिल्ली के सुल्तानों और उनके नवाबो की सत्ता कभी नहीं मानी। बंगाल के प्रसिद्ध महाकवि मधुसूदन दत्त इसी रड़ौली गांव के नाती थे। बंगाल के प्रसिद्ध नाटककार दीनबंधु मित्र भी इसी क्षेत्र के रहने वाले थे। 

परिवार - प्रफुल्लचन्द्र के पिता हरिशचन्द्र राॅय पुराने किस्म के रूढ़िवादी व्यक्ति नहीं थे। वे पाश्चात्य शिक्षा के प्रति उदार थे। वे अग्रेंजी, फारसी तथा बंगाल आदि भाषाओं के अच्छे ज्ञात थे। उनका अपने समय के लगभग सभी समाज सुधारकों से परिचय था। जतीन्द्र मोहन टैगोर, दिगम्बर मित्र, कृष्टोदास पाल और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, ये सभी उनके मित्र थे। उन्होंने अपने गांव में प्राथमिक विद्यालय भी स्थापित किया था। 

बचपन - बालक प्रफुल्ल ‘अकडू‘ लड़कों से सदा अलग रहता और पढ़ने लिखने में मन लगाता। प्रफुल्ल को अपने पिता के पुस्तकों के भण्डार मे जीवन - चरित्रों की एक पुस्तक मिल गई, जिसमें न्यूटन, गैलीलियों, बेजामिन फ्रेकलिन के जीवन चरित्र थे। इनके जीवन चरित्रों को पढ़कर बालक प्रफुल्ल बड़ा प्रभावित हुआ। उसे सबसे खास बात यह लगी कि वे सब साधारण घरों में पैदा हुए थे तथा अपनी लगन और मेहनत से इतने महान् बन गए थे। 

प्रेरणा - बेजामिन फ्रेकलिन के जीवन चरित्र ने प्रफुल्ल को सबसे अधिक प्रभावित किया, जो दस वर्ष की आयु में जीवनयापन की चिंता में फस गया था तथा एक पुस्तक विक्रेता से पुस्तके मांगकर रातभर पढ़ता और सुबह वापस कर देता था तथा जिसने बाद में बिजली का अविष्कार किया बालक प्रफुल्ल ने भी उन जैसा वैज्ञानिक बनने और बड़े - बड़े काम करने का निश्चय किया। 

बीमारी -इस अवधि में सन् 1874 में प्रफुल्ल को पेचिश के रोग ने आ घेरा, जिसने उसके हृष्ट-पुष्ट शरीर को बुरी तरह दुर्बल कर दिया। एड़िसन, सर वाल्टर एकाॅट, रविन्द्रनाथ टैगोर, लार्ड बायरन कर्लाइल, हर्बट स्पेन्सर आदि के जीवन चरित्रों को पढ़कर बालक प्रफुल्ल ने अपने स्वास्थ्य को सुधारने के लिए नियमों का पालन करना और प्रतिदिन थोड़ा व्यायाम करना भी शुरू कया 

वह सात महीने तक बीमार रहे। अपनी बीमारी के सात महीनों में बालक प्रफुल्ल ने एक-एक दिन अपना ज्ञान बढ़ाने में लगाया। 

प्रारंभिक शिक्षा - प्रफुल्लचन्द्र राॅय की प्रारंभिक शिक्षा गांव के प्राथमिक विद्यालय में ही हुई, जिसे 9 वर्ष की आयु में उत्र्तीण कर उन्होंने सन् 1870 में कोलकत्ता के हेयर स्कुल में प्रवेश लिया, जहाँ से उन्होंने सन् 1871 में कोलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा उत्र्तीण की। गांव से आने पर शहरी कपड़े पहने हुए जब सन् 1870 में उन्होंने इस विद्यालय में प्रवेश लिया था तो शहरी लड़कों ने उनकी ग्रामीण चाल-ढ़ाल को देखकर ‘अरे ओ देहाती‘ कहकर मजाक उड़ाया था। 

उच्च शिक्षा - प्रवेश परीक्षा उत्र्तीण करने के बाद प्रफुल्ल ने ईश्वरचंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट (अब विद्यासागर काॅलेज) में एफ.ए. में अपना नाम लिखाया तथा रसायन विज्ञान विषय अध्ययन के लिए चुना। 

बालक प्रफुल्ल को कक्षा में पढ़ाई जाने वाली बातों से संतोष नही हुआ, फलतः उन्होंने ‘बाहरी छात्र‘ के रूप में प्रेसीडेंसी काॅलेज में भौतिकशास्त्र और रसायनशास्त्र के व्याख्यान सुनने जाना शुरू कर दिया। इतना ही नही, रसायन विज्ञान की जो भी पुसतक उनके हाथ जाती, वे उसे पढ़ ड़ालते। पिता के कोलकत्ता से गांव चले जाने पर प्रफुल्ल ने छात्रावास में रहना शुरू कर दिया। जहाँ वह अपने कमरे में एक छोटी प्रयोगशाला कायम कर प्रयोग करते रहते थें। वैज्ञानिक अध्ययन के साथ-साथ वे संस्कृत भाषा का ज्ञान भी बढ़ा रहे थे तथा उन्होंने कालिदास के रघुवंश कुमारसंभव तथा मट्टीकाव्यम् का अध्ययन भी किया। 

प्रतियोगिताएँ -

1. सन् 1882 में प्रफुल्ल ने अपने मित्रों और संबंधियों को बताए बिना ‘‘अखिल भारतीय गिल क्राइस्ट स्काॅलरशिप‘‘ प्रतियोगिता के लिए तैयारी की तथा मुंबई के एक पारसी बालक बहादुर जी के साथ सफलता प्राप्त की। 

2. सन् 1885 में एडिनबरा विश्वविद्यालय की स्नातक कक्षा के छात्र के रूप में उन्हें विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक निबंध प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर मिला। निबन्ध का विषय था- ‘‘गदर के पहले और बाद का भारत‘‘। प्रफुल्ल द्वारा लिखा गया निबन्ध प्रतियोगिता में पुरस्कृत नहीं हो सका, क्योंकि इस निबन्ध मे भारत की दयनीय, सामाजिक एवं आर्थिक दशा का मुद्दा उठाकर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार पर व्यंग्यात्मक शैली में तीव्र प्रहार किये गये थे, परन्तु स्तरीय साहित्यिक भाषा में लिखा जाने के कारण प्राचार्य सर विलियम मूर अंग्रेज होने के उपरान्त भी निबन्ध की प्रशंसा किए बिना न रह सका। 

यूरोप यात्रा -‘‘अखिल भारतीय गिल क्राइस्ट स्काॅलरशिप प्रतियोगिता‘‘ की सफलता ने प्रफुल्ल को उच्च शिक्षा के लिए यूरोप जाने का अवसर दिया। इस सफलता की सूचना प्रफुल्ल ने स्टैट्समैन नामक अखबार की खबर काटकर अपने पिता को गांव भेजी और माता-पिता से इग्लैण्ड जाने की आज्ञा मांगी। जब प्रफुल्ल विदा लेने और आशीर्वाद ग्रहण करने मां के सामने पहुँचे तो मां के ऑसू देखकर खुद भी रो पड़े। प्रफुल्ल ने मां को ढ़ाढ़स बंधाते हुए कहा - ‘‘मां आशीर्वाद दो कि मैं सफल होकर लौटू और विश्वास रखो, जब मै. लौटकर आऊंगा तो सबसे पहले काम यह करूॅगा कि बिकी हुई जमीन खरीद लूंगा और गिरता हुआ मकान फिर बनवा दूंगा।‘‘ 

इंग्लैण्ड यात्रा -सन् 1882 में प्रफुल्ल इग्लैण्ड आये और एड़िनबरा विश्वविद्यालय में विज्ञान संकाय में प्रवेश प्राप्त किया। यहाँ वे प्रसिद्ध रसायन वैज्ञानिक अलैक्जैण्ड़र क्रम ब्राऊन के प्रभाव में आये तथा रसायन शास्त्र की प्रति उनकी रूचि और भी बढ़ गई। यहाँ उनका सर्वप्रथम परिचय ह्मूम मार्शल, अलैक्जेण्ड़र स्मिथ, डाॅ. डाॅर्बिन तथा जेम्स वाॅकर आदि से हुआ। कुछ ही दिनों में जर्मन भाषा सीखकर वे जर्मन वैज्ञानिकों की पुस्तकों से भी लाभ उठाने लगे। इग्लैण्ड प्रवासकाल में उनकी मित्रता लंदन में अध्ययनरत सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस से हो गई। प्रफुल्ल इग्लैण्ड में राजा राममोहन राय की तरह चोगा और चपकन पहना करते थे। इस भारतीय पोशाक में उन्हें गौरव अनुभव होता था। 

लेख प्रकाशित -युवक प्रफुल्ल ने ‘लन्दन टाइम्स‘ सहित इग्लैण्ड की प्रतिष्ठित पत्रों में जाॅन ब्राइट की सिफारिश के साथ अपना लेख प्रकाशनार्थ प्रेषित कर दिया और एक दिन इग्लैण्ड वासियों को इस लेख के माध्यम से पढ़ने को मिला कि अंग्रेजो ने भारत को कितनी बेरहमी से लूटा है, भारत के लोगों के साथ कितना अन्याय किया। लेख के साथ लेखक का नाम भी छपा ‘‘प्रफुल्लचन्द्र रे‘‘। 

कई वर्षो के अध्ययन के पश्चात् उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘हिन्दु रसायन शास्त्र का इतिहास‘‘ सन् 1902 में प्रकाशित हुई, जिसे विश्व के सभी वैज्ञानिकों द्वारा सराहा गया। उसका दूसरा खण्ड सन् 1908 में प्रकशित हुआ जो 15 वर्ष से अधिक दीर्घ और श्रमपूर्ण शोधकार्य का परिणाम था। यह ग्रन्थ रसायन के क्षेत्र में प्राचीन कालीन हिन्दुओं की उपलब्धियों पर प्रकाश डालता है विद्वान आलोचकों और पाठकों द्वारा इसे विज्ञान के इतिहास में एक महत्वपूर्ण देन माना गया है। 

शोध-कार्य -

1. B.Sc. की परीक्षा में उन्होंने शानदार सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने ‘कच्ची धातु का विश्लेषण‘ विषय पर शोधकार्य किया। 

2. सन् 1896 उनके जीवन का महत्वपूर्ण समय था। उस समय उन्होंने एक महान् कार्य किया। उन्होंने मरक्युरस नाइट्रेट नामक अस्थायी पदार्थ प्रयोगशाला में तैयार कर दिखाया। उनकी इस महान् खोज से विश्व के रसायनशास्त्री आश्चर्यकित होगा।  

3. उन्होंने अपने घर पर पशुओं की हड्डियों को जलाकर दिमागी ताकत बढ़ाने वाला रासायनिक तत्व ‘‘फास्फेट ऑफ कैल्सियम‘‘ का निर्माण किया। 

4. डाॅ. राॅय ने मरक्यूरस नाइट्रेट के अलावा अमोनिया नाइट्रेट यौगिकों तथा उनके व्युत्पादो पर मौलिक अनुसंधान किए। रसायनशास्त्र में निम्नलिखित महत्वपूर्ण देन है -

1. पारे के नाइट्रेट तथा उनके व्युत्पन्न।

2. नाइट्राइप्स की चालकता निकालना।

3. मरक्यूरली के नाइट्रस। 

उपाधि, सम्मान और ख्याति - 
  • सन् 1888 में ड़ी.एस.सी. की उपाधि अकार्बनिक रसायन विषय पर प्राप्त की तथा एड़िनबरा विश्वविद्यालय में कई छात्रवृतियों को प्राप्त करने वाले हो गए। 
  • एड़िनबरा विश्वविद्यालय में वे एकमात्र छात्र थे जिन्होंने सन् 1888 में ड़ी.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की। अतः उनका सम्मान सभी जगह बढ़ गया। 
  • एड़िनबरा विश्वविद्यालय की रसायन सोसाइटी ने 1887-88 के सत्र् में उन्हें अपना उपाध्यक्ष भी चुन लिया था। इससे उनकी प्रतिभा की धाक का पता चलता है। 
  • सन् 1911 में उन्हें ‘नाइट‘ की उपाधि से सम्मानित किया गया। सन् 1934 में वे लंदन रसायन सोसाइटी के सम्मानित सदस्य चुने गए। 
  • ड़रहय विश्वविद्यालय में उन्हें डी.एस.सी की सम्मानित उपाधि प्रदान की। कोलकत्ता ढ़ाका और बनारस विश्वविद्यालयों ने भी उन्हें अनेक उपाधियों से सम्मानित किया।
  • सन् 1912 में ब्रिटिश विश्वविद्यालयों के सम्मेलन से वापस आने पर प्रिसीडे़सी काॅलेज में उनके सम्मान में एक भोज आयोजित किया, जिसमें पिं्रसिपल जेम्स ने उनकी विशेषताओं का गुणगान किया था। 
  • सन् 1920 में वे भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए।
  • सन् 1917 में वे भारतीय राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन, कोलकत्ता के अध्यक्ष बने।
  • सन् 1901 में उनकी मित्रता प्रोफेसर गोपालकृष्ण गोखले और महात्मा गांधी से हुई। कोलकत्ता में 19 जनवरी 1902 को गांधीजी की पहली सभा करने डाॅ. राॅय को ही है। डाॅ. राॅय रूढ़िवादिता में विश्वास नहीं रखते है। 

अध्यापन कार्य -सन् 1888 में भारत लौटने पर वे सन् 1889 में प्रेसीडेंसी काॅलेज कोलकत्ता में सहायक प्रोफेसर नियुक्त हुए, जहाँ सन् 1911 में अपनी सेवा निवृति से कुछ वर्ष पूर्व वे वरिष्ठ प्रोफेसर बने। एक कुशल अध्यापक के रूप में वे अपने छात्रों से सदैव कहा करते थे- ‘‘विज्ञान का अध्ययन एक सच्चे भारतीय की तरह अपनी अपनी ही मातृभाषा में करो। देखी रूसी वैज्ञानिक दिमित्री मैडिंलीफ ने अपना विश्व-प्रसिद्ध अनुसंधान-कार्य ‘तत्त्वों की आवृत सारणी‘ से संबंधित पत्र रूसी भाषा में प्रकाशित कराया है, अंग्रेजी नहीं।‘‘ 

सन् 1916 में वे राजकीय सेवा से निवृत हो गए। उसके बाद उन्होंने महान शिक्षाशास्त्री सर आशुतोष मुखर्जी के निवेदन पर नवसृजित विश्वविद्यालय विज्ञान महाविद्यालय, कोलकत्ता मे रसायनशास्त्र के पालित प्रोफेसर के पद का भार ग्रहण किया। उनके शोध छात्रों की संख्या निरन्तर बढ़ती रही। 

उद्योग धंधो की स्थापना -डाॅ. राॅय को केवल वैज्ञानिक कहना उचित न होगा। वे इस बात से भी बड़े दुखी हुए कि भारत के लोग आवश्यक औषधियों के लिए भी विदेशी-देशों विशेषक इग्लैण्ड पर आश्रित है। उन्होंने देखा कि फल-कारखानों, उद्योग-धंधों से रसायन-विद्या का गहरा संबंध है। यह देखकर भी उन्हे बड़ी पीड़ा होती थी कि बंगाली नवयुवक विश्वविद्यालय की डिग्रिया लेकर नौकरी की तलाश में दर-दर भटकते फिरते है। व्यापार और उद्योग-धंधों की तरफ उनका ध्यान बिल्कुल नहीं जाता। वे औद्योगिक प्रतिष्ठानों और कारखानों की स्थापना एवं विकास के लिए भी बराबर उत्साही एवं प्रयत्नशील रहे। उन्होंने ऐसी रासायनिक चीजे बनाने का दृढ़ निश्चय किया जो दवाओं के काम आ सके। अतः उन्होंने औषध-निर्माण का कार्य हाथ में लिया और उन्होंने अपनी मासिक आय का अधिकांश भाग इसके निहित होम कर दिया। उन्होंने अपने घर पर पशुओं की हड्डियां जलाकर दिमागी ताकत बढ़ाने वाला रासायनिक तत्व ‘फास्फेट आॅफ कैल्शियम‘ का निर्माण किया। उन्होंने अपने घर पर जो कारखाना बनाया था, वह धीरे-धीरे प्रगति करने लगा तथा सन् 1900 लगभग एक बड़ा भारी कारखाना बन गया, जो बंगाल कैमिकल्स एण्ड फार्मास्यूटिकल वक्र्स के नाम से आज भी प्रसिद्ध है, उन्होंने उसे सन् 1902 में एक लिमिटेड संस्थान में परिवर्तित कर दिया। उन्होंने एक ट्रस्ट मण्डल का गठन अपने जन्म स्थान खुलना जिले में एक विद्यालय का संचालन करने के लिए तथा अन्य लोक-कल्याणकारी कार्यो के लिए किया। 

स्वदेशी धंधो को प्राथमिकता -डाॅ. राॅय ‘स्वदेशी उद्योग धंधो‘ के संस्थापक थे। सौदेपुर में गंधक के तेजाब का कारखाना, सन् 1901 में स्थापित कोलकत्ता पाॅट्री वक्र्स नामक चीनी-मिट्टी के बर्तन बनाने का कारखाना सन् 1921 में स्थापित बंगाल एनेमल वक्र्स नामक तामचीनी की चीजे बनाने का कारखाना और सन् 1905 में स्थापित बंगीय स्टीम नैविगेशन कंपनी नामक जहाजरानी कंपनी आदि की स्थापना और संचालन में डाॅ. राॅय की भूमिकाएं अविस्मरणीय रहेगी। 

सम्मेलन व भाषण -सन् 1921 से 1931 तक उन्होंने देश के कोने-कोने का भ्रमण किया और राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना करके बद्दर और छुआछुम उन्मूलन पर भाषण देकर नवयुवकों में नई चेतना फूकी। सभी राजनीतिक नेताओं के जेल में डाल देने पर उन्होंने खुलना, दिजानपुर, कटक आदि अनेक स्थानों पर राजनीतिक सम्मेलनों का सभापतित्व भी किया। असहयोग आन्दोलन के जोर पकड़ने पर उन्होंने कहा था - ‘विज्ञान प्रतीक्षा कर सकता है स्वराज्य नहीं।‘ 

देश प्रेम की भावना -डाॅ. राॅय वैज्ञानिक होने से पहले एक भारतीय थे और सच्चे भारतीय होने के कारण वे सच्चे लोक - सेवक थे। जब कभी और जहाँ कहीं बाढ़ो से भारी नुकसान और विनाश होता था। डाॅ. राॅय प्राकृतिक आपदा से पीड़ित लोगों की राहत के लिए समर्पित भाव से जुट जाते थे। 

सन् 1922 के भयानक अकाल में वे सब शोधकार्य छोड़कर दीन-दुःखियों और पीड़ितों की सहायता के लिए कूद पड़े। उनके मार्गदर्शन में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक दिनों में सन् 1922 में उत्तरी बंगाल के बाढ़-पीड़ितों के लिए सहायता-शिविरों का आयोजन किया था। सितम्बर सन् 1931 में उत्तरी और पूर्वी बंगाल में पुनः बाढ़ का प्रकोप हुआ। ‘संकट निवारण समिति‘ ने डाॅ. राॅय को ही इसके निवारण हेतु चुना। सहायता कार्य से बंगाल के युवको, पढ़े-लिखे नौजवनों को बहुत प्रेरणा मिली। वे गांव-गांव गए। अपने देशवासियों की दुर्दशा अपनी आँखो से देखी तथा अपनी एकतामूलक संस्कृति के दर्शन किए। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मातृभूमि की सेवा में समर्पित कर दिया। प्राचीन संतो की भांति उन्होंने विद्वता को चरित्र से मिलाया। उनका उदाहरण वर्तमान और भावी दोनों पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है। 

व्यवहार- कुशलता -वे आधुनिक भारत के शिल्पकारों में मूर्धन्य थे, किन्तु वे शक्ति, पद धन और सम्मान के अभिमानी लोगों से बचते थें। वे प्रत्येक से, चाहे वह अनपढ़ अथवा धनी हो, बड़े ही प्रेम से मिलते थे। उन्हें सांमतवादी पृथकतावाद से घृणा थी। 

वे केवल बुद्धि जीवियों, प्रबुद्ध वर्ग और छात्रों के ही मित्र दार्शनिक और मार्गदर्शक नहीं थे, बल्कि सामान्य युवा वर्ग के भी अखण्ड़ प्रेरणा स्त्रोत थे। वे युवकों को यह बताने में अपना अपना कर्तव्य मानते थे कि जीवन में सफलता का रहस्य उद्योगों में निहित है, न कि क्लर्क का कार्य करने में। सन् 1929 में वे तन-मन से असहयोग के आर्थिक रचनात्मक कार्यक्रम में जुट गए। उन्होंने कताई और बुनाई का भरपुर प्रचार किया और जीवन पर्यन्त खादी का उपयोग किया। वे कोई राजनीतिक प्रचारक नहीं थे। परन्तु प्रबुद्ध वर्ग और कार्यो में महान् थे। वे सादगी और सदाचार की प्रतिमूर्ति थे। धर्म और संस्कृति के प्रबल समर्थक इस वैज्ञानिक के रहन-सहन आचार-विचार एवं व्यवहार को देखकर उन्हें महान् भारतीय वैज्ञानिक संत कहते थे। 

उद्घाटन तथा दान राशि -उन्होंने सन् 1924 में भारतीय रसायन सोसाइटी का उद्घाटन किया जिसके वे 2 वर्ष तक संस्थापक अध्यक्ष रहे। उनके द्वारा दिए गए 12 हजार रूपयों की राशि से ही इस सोसाइटी का प्रारम्भ हुआ था। सन् 1936 में वे पालित प्रोफेसर के पद से सेवा निवृत हुए और जीवन पर्यन्त एमेरिटर प्रोफेसर बने रहे। इससे बहुत पूर्व सन् 1921 में अपने जीवन के 60 वर्ष पूरे करने पर उन्होंने अपने मासिक वेतन के स्वतंत्र दान का निवेदन विश्वविद्यालय अधिकारियों से किया। यह राशि विश्वविद्यालय विज्ञान और तकनीकी महाविद्यालय के विकास के लिए निर्धारित की गई। इसी 1,30,200 रू. की राशि के ब्याज से दो प्रफुल्लचन्द्र राॅय छात्रवृत्तियां श्रेष्ठ छात्रों को प्रदान की जाती है। सन् 1922 में उन्होंने पुनः 12,000 रूपयों का दान नागार्जुन पुरस्कार तथा दूसरा सन् 1936 में 11000 रू. का दान जन्तुविज्ञान और जीव-विज्ञान में सर आशुतोष मुखर्जी पुरस्कार के लिए दिया। 

अन्य रूचियाँ -इतिहास और साहित्य से डाॅ. राॅय को विशेष प्रेम था। रविन्द्रनाथ टैगोर, मधुसूदन दत्त और शेक्सपियर उनके प्रिय कवि थे। सन् 1932 में उन्होंने अपनी आत्मकथा - ‘‘एक बंगाली रसायनवेत्ता का जीवन और अनुभव‘‘ पूरी की। 

रसायनशास्त्री होते हुए भी वे प्रयोगशाला की चारदीवारी तक सीमित नहीं थे। विज्ञान के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होते हुए उनकी रूचियाँ विविध और आश्चर्यजनक थी, जैसे- शिक्षा, उद्योग, समाज-सुधार, वैज्ञानिक, आर्थिक और राजनीतिक पुनरूत्थान देशोत्थान इन सब ने उन्हें काफी प्रभावित किया।

अंग्रेजी कवि और नाटककार शेक्सपियर के नाटक, इतिहास और जीवन-चरित्र की पुस्तके पढ़ना का भी प्रफुल्ल को बहुत शौक था। उसके पिता उसकी जिज्ञासा को शांत कर उसका ज्ञानवर्धन करते थे। प्रफुल्ल को ब्रह्मसमाज के विद्वानों के भाषण सुनने जाते थे और उनके उदार विचारों का मनन करता था। 

मृत्यु -शुक्रवार 14 जून 1944 को सायं 6 बजकर 27 मिनट पर कोलकत्ता विश्वविद्यालय विज्ञान और तकनीकी काॅलेज में डाॅ. राॅय का कुछ क्षणों की बीमारी के बाद निधन हो गया। जो उनके जीवन के पिछले 30 वर्षो से उनका घर था। देश डाॅ. राॅय के अविस्मरणीय कार्यो का हमेशा कृतज्ञ रहेगा। 

डाॅ. राॅय ने ‘कच्ची धातु का विश्लेषण‘ विषय पर शोधकार्य किया। इन्होंने दिमागी ताकत बढ़ाने वाले ‘‘फास्फेट आॅफ कैल्शियम‘‘ का निर्माण किया वे स्वदेशी धंधो को प्राथमिकता देते थे तथा उन्होंने कई उद्योग-धंधो की स्थापना की। 

डाॅ. राॅय को केवल वैज्ञानिक कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि उन्हे विज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी रूचि थी। व्यवहार कुशल होने के साथ ही स्वदेश प्रेमी भी थे। उनको अनेक उपाधि, सम्मान और ख्याति दी गई। 

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Dr. D R BHATNAGAR 

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