मंगलवार, 24 जनवरी 2023

श्यामपट्ट लेखन कौशल (BLACK BOARD WRITING SKILL)

 

श्यामपट्ट लेखन कौशल 

BLACK BOARD WRITING SKILL

    शिक्षण प्रक्रिया मे श्यामपट्ट शिक्षक का सच्चा सहयोगी होता है। उसका घनिष्ठतम मित्र होता है। जब कोई तथ्य बालक मौखिक रूप से नही शिक्षक श्यामपट्ट पर ही उसे चित्रित करके बालक को समझाता है।

    श्यामपट्ट की सहायता से शिक्षक अपने शिक्षण को सशक्त बनाता है। शिक्षण प्रक्रिया में कई विषय तो ऐसे है, जिनका शिक्षक के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जैसे- गणित, विज्ञान। इन विषयों में श्यामपट्ट की बहुत आवश्यकता पड़ती है। शिक्षक रेखाचित्र बनाकर किसी वस्तु का चित्र बनाकर अपने अध्ययन प्रकरण का अधिक प्रभावशाली बनाता है। इसके माध्यम से ही वह छात्रों को निर्देश देता है, गृहकार्य देता है। इस प्रकार यह दृश्य शिक्षण सहायक सामग्रीयों में सबसे सस्ती तथा सरल सामग्री है। इसका उपयोग सभी शिक्षक करते है। अपने शिक्षण में उद्देश्यों की प्राप्ति हेतू शिक्षक को श्यामपट्ट लेखन कौशल में सिद्धहस्त होना चाहिये।

कक्षा - शिक्षण में श्यामपट्ट का उपयोग

1. श्यामपट्ट कक्षा में तल से दो फुट के लगभग ऊचा होना चाहिये।

2. श्यामपट्ट पर लिखते समय 45 डिग्री के कोण पर खड़े होना चाहिये।

3. श्यामपट्ट पर किसी रोशनदान का सीधा प्रकाश ना पड़े । जिससे अक्षर ना दिखे।

4. श्यामपट्ट बहुत चिकना ना हो, इसके लिये उस पर समय-समय पर पाॅलिश करवाई जानी चाहिये।

5. श्यामपट्ट पर लिखते समय चाॅक आवाज ना करे, इसके लिये चाॅक की नाॅक आगे से तोड़ लेनी चाहिये।

6. कक्षा में श्यामपट्ट उपयोग के बाद चाॅक तुरन्त यथा स्थान पर रख देना चाहियें।

7. श्यामपट्ट का प्रयोग यदि आवश्यक हो तो ही करना चाहिये।

8. श्यामपट्ट पर लिखते समय सुन्दर लेख होना चाहिये।

9. अक्षरों को एक के बाद एक नियोजित ढ़ंग से लिखना चाहिये।

10. अक्षरों का आकार न तो अधिक बड़ा और न ही अधिक छोटा होना चाहिये।

11. लिखी जाने वाली पंक्ति सीधी रेखा में होनी चाहिये । यह प्रयोग अध्यापकों के लिये बहुत ही सावधानी का है।

12. एक ही तथ्य को बार-बार नहीं लिखना चाहिये।

13. श्यामपट्ट पर लिखने से पहले अच्छी प्रकार से उसे साफ कर लेना चाहिये क्योंकि बच्चे पुराने अक्षरों की मात्रा समझ कर गलत शब्द उतार लेते हैं या पढ़ लेते है।

14. अनावश्यक तथ्यों के लिये श्यामपट्ट का बचाना चाहिये । अन्याथा छात्र उसे भी विषय -वस्तु में सम्मिलित कर लेंगे।

15. कक्षा में प्रवेश करते हीे कक्षा, दिनांक, विषय,प्रकरण, कालाशं आदि अंकित कर देना चाहिये।

16. छात्रों को दिया जाने वाला गृहकार्य श्यामपट्ट पर लिखना चाहिये।

17. कालाशं समाप्त होने पर स्वयं श्यामपट्ट साफ करे । छात्रों से न कराये।

18. प्रकरण के विकास के साथ मुख्य बिन्दु अंकित करते रहना चाहिये।

19. लिखते समय साथ-साथ बोलते भी रहना चाहिये। इससे बालक सक्रिय रहेंगे।

20. लिखते समय कक्षा में अवश्य ध्यान देना चाहिये।

21. शिक्षक के पास चाॅक पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिये।

22. झाड़न अच्छा होना चाहिए, साफ करते समय आवाज नहीं आनी चाहिये व श्यामपट्ट पर खरोंच न आये।

23. श्यामपट्ट पर लिखते समय अध्यापक का शरीर छात्रों के श्यामपट्ट पढ़ने में बाधक नहीं होना चाहियंे।

श्यामपट्ट का महत्व/उपयोगिता

1. श्यामपट्ट विषय की प्रारम्भिक सूचनाएँ देने में सहायक होता है।

2. इससे बालकों को व्याख्या करके समझा सकते हैं।

3. श्यामपट्ट के द्वारा बालक शारीरिक और मानसिक रूप से क्रियाशील बना रहता है।

4. यह सहायक सामग्री की पूर्ति करता है।

5. सम्बन्धित प्रकरण को चित्र-रेखाचित्र आदि की सहायता से समझाने में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान हैै।

6. कठिन शब्दों के अर्थ विभिन्न विधियों से समझाये जा सकते है।

7. इस पर अंकित शिक्षण सामग्री छात्र के मानस पटल पर अंकित हो जाती है।

8. प्रकरण-कालांश-विषय आदि का बोध भी समय-समय पर होता रहता है।

9. शिक्षक के लेखन कौशल को सुदृढ़ बनाता है और छात्र के लेखन कौशल को भी विकसित करने में सहायक होता है।

10. छात्रों का ध्यान विकेन्द्रीकृत नहीं हो पाता। 

11. इससे सम्पूर्ण कक्षा एक साथ लाभान्वित हो सकती है।

12. यह गृहकार्य प्रदान करने में सहायक है।

13. गणित, विज्ञान,चित्रकला आदि विषयों में यह महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।

14. कविता शिक्षण मे इसकी उपयोगिता है। अध्यापक सम्बन्धित पद्य को इस पर लिखकर शिक्षण कराने में सफल होता है।

15. अवकाश आदि की घोषणा के लिये भी श्यामपट्ट उपयोगी है।

16. श्यामपट्ट पर अनमोल वचन लिखकर छात्रों को दिखा सकते है।

17. श्यामपट्ट का प्रयोग करने से बालक की झिझक दूर होती है।

श्यामपट्ट लेखन कौशल के घटक

1. सुपाठ्य व सुलेखन- एक लेखने सुपाठ्य एवं अच्छे स्तर का तब माना जाता है, जबकि उसे आसानी से पढ़ा जा सके ।इसके लिये यह आवश्यक है कि अक्षरों की बनावट श्यामपट्ट पर ऐसी हो कि कक्षा का प्रत्येक बालक उसे अच्छी तरह से पढ़ सके।

2. व्याकरणिक शुद्धता- अध्यापक का प्रत्येक व्यवहार विद्यार्थी के लिये एक आदर्श व्यवहार होता है। यदि वह किसी शब्द को त्रुटिपूर्ण रूप में लिखता है, तो बालक भी उसे ही आदर्श मानकर लिखना प्रारम्भ कर देते हैं। अतः ध्यान रहे कि श्यामपट्ट पर जो भी लिखा जाये शुद्ध ही लिखें।

3. व्यवस्थित लेखन- व्यवस्थित लेखन से अभिप्रायःश्यामपट्ट पर लिखे शब्दों या वाक्यों  को एक विशेष क्रम में जमाना है और पंक्तियों का सीधी लाईन में ही लिखे। पाॅइन्टों में या आवश्यक हो तो सारणी में लिखना चाहिये तथा शब्दों एवं पंक्तियों के मध्य समान दूरी होनी चाहिये।

4. संक्षिप्तता- श्यामपट्ट का कक्षा में प्रयोग न करना तथा आवश्यकता से अधिक उपयोग करना दोनों ही स्थितियाँ उचित नही है। श्यामपट्ट का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिये कि पाठ्यवस्तु के प्रमुख बिन्दु का वर्णन उसमें आ जायें।

5. महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को रेखांकित करना- अध्यापक को श्यामपट्ट पर  महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं  को अवश्य रेखांकित करना चाहिये या रंगीन चाॅक का प्रयोग करना चाहिये। जिससे छात्रों का ध्यान केन्द्रित हो सके।

6. उपयुक्तता- श्यामपट्ट का उपयोग उचित तरीके या विधि से होना चाहिये। यानि छात्रों के लिये शिक्षक गतिरोध भी नही होना चाहिये। श्यामपट्ट साफ करने का तरीका उचित होना चाहिये। लिखते समय शब्दों को बोल-बोल कर लिखना चाहिये व सरल शब्दों में उपयोग होना चाहिये। लिखते समय 45 डिग्री कोण पर खडे़ होना चाहिये। बीच-बीच में कक्षा की तरफ भी ध्यान देना चाहिये व साफ करने से पहले बच्चों की सहमति अवश्य लेनी चाहिये।

श्यामपट्ट शिक्षण सहायक सामग्रीयों में से सस्ती सामग्री है। शिक्षण में इसकी आवश्यकता प्रारम्भ से अन्त तक है। इसके द्वारा शिक्षण कराने से ज्ञान स्थाई रहता हैै। श्यामपट्ट पर लिखें शब्द, छात्रों पर बहुत प्रभाव डालते है, इससे छात्रों में शुद्ध व सुन्दर लेख के प्रति जागृति बढ़ती है। सुव्यवस्थित श्यामपट्ट कौशल का उपयोग छात्रों मे श्यामपट्ट पर विभिन्न सारणियां, चित्र व आंकडों के द्वारा शिक्षण को प्रभावशाली बनाया जाता है।





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Dr. D R BHATNAGAR 

सोमवार, 23 जनवरी 2023

उद्दीपन परिवर्तन कौशल (STIMULUS VARIATION SKILL)

उद्दीपन भिन्नता या उद्दीपन परिवर्तन कौशल

(STIMULUS VARIATION SKILL)

    शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिये वह अनेक क्रियाएँ करता है जिससे की छात्रों का ध्यान शिक्षण की और केन्द्रिक रख सकें। स्वभाविक क्रिया है कि ध्यान केन्द्रित रहेगा तो कुछ न कुछ अधिगम भी होगा। 

उद्दीपन का अर्थ

    उद्दीपन का अर्थ व्यक्ति के वातावरण में परिवर्तन से है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप व्यक्ति अनुक्रिया या व्यवहार करने लगता है। उद्दीपन को व्यवहार परिवर्तन में सहायक माना जाता है तथा व्यवहार परिवर्तन का अधिगम माना गया है। जैसे बच्चे को अचानक पिन चुब जाती है तो अनुभव करेगा व पुनः पिन के हाथ नहीं लगायेगा।

उद्दीपन की परिभाषा 

    टेबर, ग्लेसर और शेफर के अनुसार, “काई परिस्थिति घटना अथवा वातावरण में परिवर्तन से यदि विद्यार्थियों के  व्यवहार में परिवर्तन होता है तो उसे उद्दीपन कहते हैं।“ 

उद्दीपन परिवर्तन कौशल का अर्थ

    शिक्षण की सफलता हेतु अध्यापक कक्षा में विद्यार्थियों का ध्यान पाठ्यवस्तु पर केन्द्रित करने हेतु कोई प्रकार के उद्दीपन प्रस्तुत करके विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करता है। शरीर संचालन, हावभाव या भाव मुद्रा, आवाज में उतार-चढ़ाव, भाव केन्द्रीकरण, शिक्षक विद्यार्थी में अन्तःक्रिया का स्वरूप परिवर्तन, विराम प्रयोग तथा दृश्य-श्रव्य के क्रम में परिवर्तन करके  शिक्षक विद्यार्थियों को अपनी और आकर्षित कर सकता है । उद्दीपनों को कुशलतापूर्वक परिवर्तन करने के कौशल को ही "उद्दीपन परिवर्तन कौशल" कहते है।

उद्दीपन परिवर्तन कौशल के तत्व (घटक)

1.शरीर संचालन- कक्षा में शिक्षक की आवश्यकता से अधिक शारीरिक क्रियाएँ अवांछनीय होती है और शारीरिक क्रिया रहित शिक्षण भी कक्षा में एक अरूचिकर पत्थर की मूर्ति के समान होता है। अतः अध्यापक को आवश्यकतानुसार अपनी स्थिती बदलते रहना चाहिये।

2.हाव-भाव या भान मुद्रा- हाव-भाव या भाव-मुद्रा उसके अन्तर्गत मुख मुद्रा(हंसना, मुस्कुराना, भौहे चढ़ाना, संवेग, क्रोध, स्वीकृति,स्नेह आदि) सिर हिलाना, हाथ से संकेत करना (रूकने का संकेत, चुप रहने का संकेत ) आदि शामिल हैं।

3.आवाज में उतार-चढा़व लाना- एक ही सुर में निरन्तर बोलने से विद्यार्थी ऊब जाते हैं और उनका ध्यान पाठ से हट जाता है। शिक्षक हो चाहिये कि वह अपनी आवाज में उतार-चढ़ाव लाता रहे। महत्त्वपूर्ण वाले शब्दों को ऊंची आवाज में बोलने चाहिये व सामान्य को धीमी आवाज में बोलना चाहिये।

4.भाव-केन्द्रिकरण- इस भाव केन्द्रिकरण की प्रक्रिया में शाब्दिक केन्द्रिकरण मुद्रात्मक, केन्द्रिकरण तथा मुद्रात्मक-शाब्दिक केन्द्रिकरण शामिल है। शाब्दिक केन्द्रिकरण में शब्दों का प्रयोग करके तथा उन्हें बार-बार दोहराकर ध्यान का केन्द्रिकरण किया जाता है। मुद्राकरण केन्द्रीकरण में केवल भाव मुद्राओं के सहारे ही अर्थात मुद्रात्मक शाब्दिक केन्द्रिकरण में शब्दों के साथ संकेतों का भी प्रयोग किया जाता है।

5.अन्तःक्रिया में परिवर्तन- कक्षा में शिक्षक और के बीच अन्तःक्रिया के बिना कक्षा का वातावरण नीरस और उबाऊ बनकर रह जायेगा। परन्तु कक्षा में इन अन्तःक्रियाओं का प्रारूप निरन्तर बदलते रहना चाहिये। जैसे- छात्र-अध्यापक के मध्य, अध्यापक और सम्पूर्ण कक्षा के मध्य और छात्र-छात्रों के मध्य।

6.दृश्य-श्रव्य क्रम परिवर्तन- शिक्षण के समय कक्षा में प्रयोग की जाने वाली सहायक सामग्री के क्रम में निरान्तर परिवर्तन रहने से विद्यार्थियों का ध्यान (शिक्षक) शिक्षण की ओर केन्द्रित रहता है। अतः इनके क्रम में परिवर्तन करते रहना चाहिये।

7.विराम प्रयोग- कक्षा में अपनी व्याख्या-प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार विराम का भी प्रयोंग करना चाहिये। जिससें छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन हो सके ।

 


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Dr. D R BHATNAGAR  


गुरुवार, 19 जनवरी 2023

उदाहरण सहित दृष्टान्त कौशल (ILLUSTRATING WITH EXAMPLES SKILL)

उदाहरण सहित दृष्टान्त कौशल 

ILLUSTRATING WITH EXAMPLES SKILL 

    शिक्षण कौशलों में उदाहरण सहित दृष्टान्त कौशल का अपना विशिष्ट स्थान है। इसके अन्तर्गत शिक्षण कराते  समय शिक्षक प्रकरण से सम्बन्धित अनेक कहानी, किस्से , घटना, श्लोक, दोहा, कविता, लोकोक्ति, मुहावरे आदि छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता है। जैसे - आम के आम गुठलियों के दाम, बोये पेड़ बबूल का आम कहां से हाये आदि। इससे विषय वस्तु सरल, सरल, सरस, रोचक, प्रवाहमयी, बोधगम्य बन सकेगी जिसको बालक शीघ्र की हृदयंग कर सकेंगे। प्रदर्शन का भी इसमें विशेष महत्व है। अतः उदाहरण और दृष्टान्त पाठ्यवस्तु को रोचक सरल, बनाने के साथ ही उसे स्थायित्व भी प्रदान करते हैं ।

    शिक्षक किसी विशेष परिस्थिति में ही उदाहरण दृष्टान्त आदि का प्रयोग करता है। उदाहरण कौशल किसी विशेष सिद्धान्तों में ही प्रंयुक्त किया जा सकता है। कक्षा में  भिन्न - भिन्न प्रकृति बुद्धि विचारों  के छात्र होते हैं। अतः सभी को एक विधि से सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है। तीव्रबुद्धि छात्र मौखिक रूप से कराये गये शिक्षण का हृदयंग कर लेता है किन्तु उसी के साथ बैठा मन्द बुद्धि छात्र उससें लाभान्वित नहीं होता है। इस प्रकार के छात्रों के लिये उदाहरण सहित दृष्टान्त कौशल बहुपयोगी है। मनोवैज्ञानिक तथा शिक्षा शास्त्री लेण्डन ने इस विषय में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उदाहरण मात्र ज्ञान की व्याख्या अथवा स्पष्टीकरण ही नहीं करते, अपितु ये प्राप्त किये ज्ञान को चिर स्थायी बनाने में भी बहुत योगदान प्रदान करते है। अतः उदाहरण सहित दृष्टान्त कौशल पाठ्यवस्तु को सुग्राही बनाने में सहायक है। यह विशिष्ट शिक्षण कौशल है। 

    कक्षा में शिक्षण कराते समय अध्यापक अनेक प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत करता हैं। जैसे कविता, श्लोक, कहानी, घटना आदि कई ऐसे उदाहरण भी प्रस्तुत करने पड़ते है। कुछ उदाहरण प्रदर्शन करके दिखाया जाते है। अतः प्रमुख रूप से दो प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते है।

उदाहरणों के प्रकार

उदाहरणों दो प्रकार के होते हैं-

1. मौखिक रूप से दिये जाने वाले ।

2. प्रदर्शनात्मक रूप से दिये जाने वाले।

मौखिक उदाहरण - मौखिक रूप से दिये जाने वाले उदाहरणों  में सुक्ति, कहानी, कथा, मुहावरें  लोकोक्ति आदि को सम्मिलित करते है। यें प्रकरण के अनुसार प्रसंगवश दिये जा सकते है। अतः ये प्रासांगिक उदाहरण कहलाते है। जैसे - अध्यापक पढ़ रहा है कि ’जाको राखे साईया मार सके  ना कोय। ’ इसका भाव स्पष्ट करने के लिये वह कोई भी घटना या कहानी बालकों को सुना सकता है। भक्त प्रहलाद, मीराबाई आदि अनेक उदाहरण दे सकता है।

    कई बार किसी तथ्य को स्पष्ट करने हेतु किसी अन्य तथ्य से तुलना करके  समझाया जाता है। इन्हें तुलनात्मक उदाहरण कहते हैं इनका  प्रयोग प्रमुखतया भाषा सम्बन्धी विषयों में ही अधिक किया जाता है। विज्ञान में जलीय आवासीय जन्तु से तुलना की जा सकती है। अतः मौखिक उदाहरणांे में शाब्दिक क्रियायें ही प्रभावशाली होती है।

1. प्रदर्शनात्मक उदाहरण - छात्रों को पढ़ाते समय कभी-कभी ऐसी स्थिति आ जाती हैं कि शाब्दिक क्रिया बालक को समझाने में पर्याप्त नहीं रहतीं। ऐसे मे शिक्षक किसी स्थूल वस्तु का प्रदर्शन करता हैं। बालकों के समक्ष तत्काल (प्रकरण से सम्बद्ध) उस वस्तु को दिखाया जाने से बालक उसके बारे में जितना पढ़कर ज्ञात नहीं कर सके उससें कहीं ज्यादा उसे देखकर सीखते हैं। प्रदर्शन के लिये विज्ञान तथा गणित महत्त्वपूर्ण विषय हैं । विज्ञान के शिक्षण में जैसे - आॅक्सीजन गैस बनाने की विधि का पर्याप्त आकार का चित्र प्रस्तुत कर दिया जाये अथवा शिक्षक श्यामपट्ट पर उस सम्पूर्ण प्रक्रिया को  चित्र के रूप में अंकित कर दे तो सरलता से उसका अधिगम कर सकते है। इससे छात्र तथ्य/वस्तु के प्रत्येक अंग से परिचित होंगे  और उसे लम्बे समय तक नहीं भूलत। 

    कई विषय ऐसे हैं जिनका बोध कराने के लिये बालकों को विद्यालय से बाहर भी ले जाया जा सकता है। विज्ञान शिक्षण में ’’मरूस्थलीय पादप’’ पढ़ाते समय हमें हमारे प्रदेश के मरूस्थलीय भागों के पादपों के बारे में जानकारी देना तथा इस हेतु बाड़मेर व जैसलमेर तथा यहां स्थित फासिल बुड पार्क का भ्रमण करा कर जानकारी देने से छात्र पढ़े हुये ज्ञान का आत्मसात् करेंगे और प्रसन्नचित होकर और अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहेंगे।

 महत्वपूर्ण बिन्दू

    उपर्युक्त दोनों प्रकार के उदाहरण तथा दृष्टान्तों  को बालक के समक्ष प्रस्तुत करते समय शिक्षक को अपनी कुशलता का परिचय देना होता है। निम्नलिखित बिन्दुओं का ध्यान में रखना चाहिए-

1. उदाहरण,दृष्टान्त विषय से सम्बद्ध हो।

2. उदाहरण या दृष्टान्त का प्रयोग तत्काल करना चाहिये। यह नहीं हो कि प्रसंग तो प्रारम्भ में आया था और स्पष्टीकरण (उदाहरण) पाठ के अन्त में किया जा रहा है। ऐसे मे बालकों का मात्र मनोंरजन ही हो सकता है।

3. उदाहरण बालकों  के ज्ञानात्मक स्तर के अनुरूप ही हो।

4. उदाहरण दृष्टांत इस प्रकार की कथन शैली में दिया जाये कि बालक सरलता से उसका बोध कर ले। यदि जटिल शैली अपना ली तो बालक अधिक ग्रहण तो दूर की बात है, पहले पढ़ा था उसे भी भूल जायेगा।

5. उदाहरण/दृष्टान्त के उदाहरण/दृष्टान्त ही रहने दें, उन्हें विषय वस्तु न बना लें।

6. उदाहरणों में सत्यता,सार्थकता, सामाजिकता का समावेश अपेक्षित है।

7. उदाहरणों में किसी प्रकार की नैतिक शिक्षा भी हो। जिसके  असर बालक के व्यवहार पर पड़ सके ।

8. काल्पनिक जगत के उदाहरणों का सहयोंग नहीं लेना चाहिये।

9. असमय/अप्रासंगिक उदाहरणों का सहयोग नहीं लेना चाहिये।

10. भ्रमण के समय संकलित स्थलों का ही अवलोकन किया जाना चाहिये। अन्यथा समय का सदुपयोग नहीं हों सकेगा। छात्रों का विशेष ध्यान रखना चाहिये। सम्बन्धित स्थानों की जानकारी शिक्षक या गाइडर अच्छी तरह से दें।

उदाहरण सहित दृष्टान्त कौशल का महत्त्व

1. यह पाठ्यवस्तु का सरल, सरस तथा सुबोधगम्य बनाने में सहायक है।

2. पढे़ (सीखे) हुये ज्ञान को चिरस्थायी रख सकते है।

3. यह पूर्णतया मनोंवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित होने से व्यक्तिगत भिन्नता का ध्यान रखने में सहायक है।

4. इससे प्रकरण में आये कठिन तथ्य उदाहरण से परिपुष्ट होते है।

5. दृष्टान्त कौशल से बालक सूक्ष्म ज्ञान को भी समझ सकते है।

6. उदाहरण सहित दृष्टान्त कौशल बालकों की तर्कशक्ति प्रदान करता है।

7. इससें कल्पना शक्ति का विकास किया जा सकता है।

8. इसमें छात्र समीपता से गहन अध्ययन करने में सक्षम होते है।।

9. छात्रों को सक्रिय बनाये रखने तथा स्थायी अनुभव प्रदान करने में यह अत्यन्त सहायक है।

10. इसे छात्र ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक तीनों पक्षों से लाभान्वित हो सकते है।




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Dr. D R BHATNAGAR 


 

बुधवार, 18 जनवरी 2023

पुनर्बलन कौशल (REINFORCEMENT SKILL)

 पुनर्बलन कौशल 

reinforcement skill

छात्र के उत्साहवर्धन के लिये अध्यापक उसकी प्रशंसा करता है तथा अनुशासनहीनता या सही अनुक्रिया नहीं करने पर उसे दण्डित करता है। दोनों ही रूपों में पुनर्बलन दिया जाता है। पुनर्बलन कौशल छात्र के लिये एक तरह से अतिरिक्त शक्ति का कार्य करता है। अधिगम प्रक्रिया बिना पुनबर्लन के प्रभावशाली नहीं बन सकती है। वैसे देखा जाये तो मानव प्रत्येक दिन किसी न किसी से उत्प्रेरणा प्राप्त कर अधिगम करता है। बिना किसी अभिप्रेरणा के किसी कार्य को करने का विचार आ ही नही सकता । अत- पुनबर्लन प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में मिलता रहता है।

’’शिक्षक कक्षा में होने वाले वातावरण का सृजन करने वाला होता है। अतः वह दण्ड़ तथा पुरस्कार का विधान करता है। वह दण्ड और पुरस्कार को इस प्रकार प्रमुख करता है जिससे अधिकाधिक अधिगम हो तथा वह प्रभावशाली हो।’’

पुनर्बलन का अर्थ

शिक्षक का यह दायित्व बनता है कि बालक ने जो क्रिया की है उसके तत्कालबाद उसकी प्रतिपुष्टि करें। जिससे वह उस क्रिया में और अधिक तल्लीन हो जाता है और इससे शिक्षण में प्रभावकता आयेगी। अतः पुनर्बलन के अर्थ के लिये यह कहना उचित होगा कि शिक्षक द्वारा की गई वह प्रतिक्रिया जिससे छात्र उत्तेजित हो जाये और उत्तेजना स्वरूप वह किसी कार्य को पूर्ण तन्मयता के साथ करने में जुट जाए, अभिप्ररेणा रूपी वही प्रतिक्रिया पुनर्बलन कहलाती है। दण्ड की अपेक्षा प्रशंसा या पुरस्कार देना ही प्रभावशाली पुर्नबलन हो सकता है।

परिभाषाएँ

स्किनर के अनुसार, ’’पुनबर्लन वह स्थिति है जो बालक की अनुक्रिया में वृद्धि करती है।’’

ओलिवर के अनुसार, ’’अध्यापक द्वारा की गई प्रशंसात्मक मौखिक प्रतिक्रिया पुनबर्लन है।’’

हल के अनुसार, ’’पुनबर्लन वह प्रतिक्रिया है जिसके माध्यम से छात्र उत्पन्न चालक की सन्तुष्टि होती है।’’

    इस प्रकार अध्यापक द्वारा दी गई सकारात्मक तथा नकारात्मक अभिप्रेरणा पुनबर्लन को प्रभावित करती है।

पुनबर्लन के भेद

पुनबर्लन को दों भागों मे विभाजित किया जा सकता हैं -

1. सकारात्मक पुनबर्लन

2. नकारात्मक पुनबर्लन

1 सकारात्मक पुनबर्लन- शिक्षक के द्वारा अथवा किसी घटना, क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा की गई प्रतिपुष्टि से यदि और अधिक अच्छी अनुक्रिया होती है तो यह सकारात्मक पुनबर्लन कहलाता है।

अ. शाब्दिक सकारात्मक पुनबर्लन - इसके अन्तर्गत अध्यापक का वह व्यवहार आता है जिससे बालक में अभिप्रेरणा जागृति होती है। जैसे-ठीक है, हां समझ गये, बहुत अच्छा, शाबाश , बहुत अच्छा आदि कर के उसका मनोबल बढ़ाता है। इससे छात्र अपने आपको गौरान्वित महसूस करता है तथा सिखने की प्रक्रिया तीव्रं कर देता हैं।

ब. अशाब्दिक सकारात्मक पुनबर्लन - अशाब्दिक पुनबर्लन में शिक्षक शब्दों के स्थान पर संकेतों का प्रयोग करता है जो कि प्रभावशाली होता है, जैसे- सही उत्तर का श्यामपट्ट पर लिखना आदि से बालक का उत्साहित करता हैं।

2. नकारात्मक पुनबर्लन - कई बार छात्र या तो गलत उत्तर देता है या बताता ही नही है ऐसे मे उसे नकारात्मक पुनबर्लन से प्रोसाहित किया जाता है। इसे भी दो भागों मे विभाजित करते है।

अ. नकारात्मक शाब्दिक पुनबर्लन - इस पुनर्बलन प्रक्रिया में अध्यापक छात्र को गलतियों के लिए, नही ठीक नहीं हैं, सोचकर बताओं, अहूं, नहीं नहीं बैठेगा आदि शब्दों से उसे सही प्रतिक्रिया करने को प्रोत्साहित करता हैं तथा अनुचित क्रिया के लिये हतोत्साहित करता हैं।

ब. नकारात्मक अशाब्दिक पुनबर्लन- इस प्रकार के पुनबर्लन में अध्यापक शब्द का प्रयोग नहीं करता है। संकेत शिक्षक-सिर हिलाकर, क्रोधी मुद्रा में छात्र को देखकर, आखें दिखाकर अपनी अस्वीकृति का संकेत करता है

पुनबर्लन कौशल के घटक 

1. स्वीकारात्मक कथनों का अधिक प्रयोग

2. छात्रों का उत्साहवर्धन

3. विद्यार्थी के साथ सहानुभूति

4. विद्यार्थी की भावना को समझना

5. आंगिक तथा शाब्दिक दोनों का प्रयोग

6. नकारात्मक शब्दों का प्रयोग करना।

7. नकारात्मक शाब्दिक और अशाब्दिक शब्दों का प्रयोग 

8. सभी का समान पुनबर्लन।

9. एक ‘शब्द‘ का बार-बार नहीं दोहराना।

10. विद्यार्थी की क्रिया के अनुरूप ही पुनबर्लन प्रदान करना।

11. सही उत्तरों का श्यामपट्ट पर लिखना।

पुनबर्लन कौशल में महत्वपूर्ण तथ्य

1. पुनबर्लन कौशल छात्र की अतिरिक्त शक्ति होती हैं। अतः सभी को दिया जाना चाहिये।

2. जहां तक हो सके सकारात्मक पुनबर्लन ही प्रदान करें।

3. छात्र की आवश्यकता के अनुरूप ही पुनबर्लन दे।

4. विशेष परिस्थिति मे दण्डात्मक पुनबर्लन भी अपेक्षित हैं अतः उसका भी यथासम्भव प्रयोग करें।

5. एक ही प्रकार का पुनबर्लन नहीं दे। शाब्दिक-अशाब्दिक विधि से छात्र को उत्साहित करें।

6. एक शब्द को बार-बार कहने से यह अध्यापक का उपनाम बन जाता है।अतः इसमें प्रत्येक छात्र के लिये भिन्न शब्द का प्रयोग करें।

7. जन-बूझकर पुनबर्लन देने से छात्र इसे विपरीत भाव में लेते हैं अतः शिक्षक को स्वाभाविक पुनबर्लन की देना चाहिये।

8. पुनबर्लन प्रदान करते समय अध्यापक विनम्र मुद्रा में ही रहें तो उपयुक्त रहता है।

9. पुनबर्लन मे नियमितता आवश्यक है। प्रत्येक उत्तर के लिये यह प्रक्रिया नहीं अपनानी चाहिये। इससे बालक की उत्तेजना नष्ट हो जाती है। 

10. अल्प विकसित छात्र का सकारात्मक पुनबर्लन नहीं दे। अन्य छात्रों के बीच उसकी अधूरी अनुक्रिया का भी पुनबर्लन करें।

11. पुनबर्लन में छात्र को नाम से पुकारे तो अच्छा रहता है।

12. छात्र का स्वास्थ्य को भी में रखे। कई बार स्वास्थ खराब होने की वजह से छात्र सही अनुक्रिया नहीं करता है। परिणामस्वरूप् शिक्षक उसे दण्ड देता है। सर्वथा अनुचित है।

13. प्रतिभाशाली छात्र के लिये अन्य छात्रों से भिन्न शाब्दिक पुनबर्लन न हो। इससे वह उत्तेजित होेंगे क्योंकि ‘शाबाश‘ आदि शब्द उसके लिये प्रभावी नहीं होते है।

14. छात्रों के मनोंभावों को भी समझें।

15. यदा-कदा सकारात्मक पुनबर्लन में पुरस्कार आदि की भी व्यवस्था करें।

16. छात्र को अन्योक्ति से बचायें । इससे इनका मनोबल टूट जाता है। 

17. अनुचित व्यवहार, अनुशासनहीनता करने पर दण्ड का ही प्रयोग करें, इससे पहले छात्र के विचार जानना आवश्यक है।




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Dr. D R BHATNAGAR 

सोमवार, 16 जनवरी 2023

खोजपूर्ण प्रश्न कौशल (PROBING QUESTION SKILL)

 खोजपूर्ण प्रश्न कौशल  

(PROBING QUESTION SKILL)

    अध्यापक पाठ विकास के लिये तो कभी छात्रों को विषय का किताना ज्ञान है यह जानने के लिये प्रश्न करता है कई बार अध्यापक यह भी पता लगाना चाहता है कि छात्र जानने के लिये प्रश्न करता है कई बार अध्यापक यह भी पता लगाना चाहता है कि छात्र सोच समझ कर उत्तर दे रहे है अथवा नहीं इस हेतु वह खोज पूर्ण प्रश्नों का सहारा लेता है।

खोज पूर्ण प्रश्नों का प्रयोग

इसका प्रयोग निम्न अवस्थाओं में किया जाता है-

1. कक्षा में जब कोई विद्यार्थी किसी प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थता प्रकट करे या अधूरा उत्तर दे तों शिक्षक ऐसा प्रश्न कर सकता हैं जिससे विद्यार्थी को पहले पूछे गये प्रश्न को हल करने का संकेत दिया गया हो।

2. कक्षा में जब विद्यार्थी किसी प्रश्न का सही उत्तर दे भी देते है तो शिक्षक को उनसे और अधिक जानकारी प्राप्त करनी चाहिये इसे विस्तृत सूचना प्राप्त तकनीक कहते है।

3. कई बार शिक्षक विद्यार्थियों का ध्यान केन्द्रित करने कि लिये खोजपूर्ण प्रश्न पूछ सकता है।

4. कक्षा में यदि शिक्षक अपने विद्यार्थियों को समस्या के समीक्षकों से परिचित करवाना चाहता है तो वह एक ही प्रश्न की भाषा में थोड़ा बहुत परिवर्तन करके कई विद्यार्थियों से प्रश्न पूछ सकता है।

5. कक्षा में विद्यार्थियों की चिन्तन शक्ति के विकास के लिये शिक्षक क्यों वाले प्रश्न पूछ सकता है इस प्रकार के प्रश्न से विद्यार्थी अभिप्रेरित होकर चिन्तन की प्रक्रिया में संलिप्त हो जाते हैं।

खोज पूर्ण कौशल के घटक

1. संकेत देना /अनुबोधन

2. विस्तृत सूचना प्राप्ति

3. पुनःकेन्द्रीयकरण

4. पुनःप्रेषण

5. आलोचनात्मक सजगता

1. संकेत देना- कक्षा में विद्यार्थी जब किसी प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थता प्रकट करें या स्पष्ट रूप से स्वीकार कर ले कि मैं नहीं जानता या ज्ञात नही ंतो शिक्षक ऐसे प्रश्न पूछ सकता है कि जिसमें विद्यार्थी को पहले प्रश्न के उत्तर का संकेत दिया हो।

2. विस्तृत सूचना प्राप्ति - विद्यार्थी द्वारा आंशिक उत्तर प्राप्त होने पर शिक्षक इस प्रकार के प्रश्न पूछ सकता है। उत्तर तो सही है लेकिन कुछ और बताओ, या अपने उत्तर को विस्तार से बताओं इस प्रकार शिक्षक विद्यार्थी से अधिक सूचनाएँ एकत्रित कर सकता है। 

3. पुनः केन्द्रीकरण - अनेक वार कक्षा में शिक्षक विद्यार्थियों के उत्तरों से सन्तुष्ट नहीं होते है। वे विद्यार्थियों का ध्यान विभिन्न परिस्थितियों की ओर आकृर्षित कर सकते है। जिनमें समस्याएँ पैदा हो सकती है। 

4. पुन प्रेषण - कक्षा में शिक्षक एक ही प्रश्न को विभिन्न विद्यार्थियों से पूछकर विभिन्न उत्तर प्राप्त करके उनमें चिन्तन शक्ति का विकास करना चाहता है। 

5. आलोचनात्मक सजगता - इस घटक में क्यों और कैसे वाले प्रश्न पूछे जाते है। इन प्रश्नों से शिक्षक विद्यार्थियों में आलोचनात्मक सजगता का विकास करता है। 



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Dr. D R BHATNAGAR 

 
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प्रश्नों की प्रवाहशीलता का कौशल (SKILL OF FLUENCY OF QUESTIONS)


 प्रश्नों की प्रवाहशीलता का कौशल

               SKILL OF FLUENCY OF QUESTIONS

    शिक्षण की दृष्टि से प्रश्न करने की कला अध्यापक के लिये एक वरदान है और शिक्षा प्रदान करने के लिये यह एक उत्तम साधन माना गया है। प्रश्न कौशल एक ऐसा माध्यम है जों कि बालक को पढ़ने के लिये प्रेरित करता हैं। प्रश्न कौशल के महत्त्व को स्वीकारते हुये कई विद्वान लिखते है-

बाॅसिंग के अनुसार,’’ प्रश्न करने की कला का महत्त्व स्वीकार किये बिना कोई भी शिक्षण विधि सफलतापूर्वक लागू नहीं की जा सकतीे ।’’

पाकेर के अनुसार,’’ प्रश्न आदत कौशल स्तर के बाहर समस्त शैक्षिक -प्रक्रिया की कुंजी है।’’

प्रश्न पूछने के उद्देश्य

1. छात्रों के पूर्व ज्ञान का पता लगाना।

2. छात्रों में पाठ के प्रति रूचि जागृत करना।

3. शिक्षण प्रक्रिया में छात्रों को मानसिक रूप से उपस्थित करने के लियें।

4. शिक्षक स्वयं अपनी शिक्षण की सफलता का मूल्यांकन करने हेतु प्रश्न पूछता है।

5. पाठ का विकास करने के लिये ।

6. छात्रों में आत्मविश्वास लाने के लिये।

प्रश्न कौशल के प्रमुख तत्व

1. प्रश्नों की संरचना - प्रश्नों की बनावट सरल व बोधगम्य तथा स्पष्ट होनी चाहिये तथा प्रश्नों का आकार छोटा होना चाहिये। प्रश्नों की बनावट इस प्रकार की होनी चाहिये कि कमजोर छात्र भी इसका हल ढूढने में समर्थ हो।

2. प्रश्नों का प्रस्तुतीकरण - सर्वप्रथम प्रश्न सम्पूर्ण कक्षा के सम्मुख पूछा जाना चाहिये। प्रश्न न तो तेज गति से पूछना चाहिये और न ही बहुत धीमी गति से , तथा आवाज स्पष्ट सुनाई दे।

3. संकेत द्वारा - जब छात्र आधा उत्तर देकर रूक जाये या उत्तर देने में घबराये या उत्तर पर्णतया सही न हो तो अध्यापक को कुछ दुसरे प्रश्न बनाकर उसे उत्तर का संकेत देते हुये विषय स्पष्ट करने का प्रयत्न करंे।

4. प्रसार - प्रश्नों का प्रसार कक्षा में चारों ओर सभी स्तर के छात्रों  में समान रूप से प्रसारित होना चाहिये। प्रश्नों को अधिकतम छात्रों से पूछना चाहिये जिससें सभी क्रियाशील व चैकन्ने रहे।

5. प्रश्नकत्र्ता की मुद्रा - प्रश्नकत्र्ता को प्रश्न सीधे एवं सरल स्वभाव से पूछे जाने चाहिये। प्रश्न पूछने के बाद कुछ समय रूककर छात्रों से उत्तर देने को कहना चाहिये।

6. पुनःनिर्देशन विधि - किसी एक छात्र द्वारा उत्तर बताने के बाद उसे कई छा़त्रों से मिलान करना चाहिए, जिससे अधिकाधिक छात्र सक्रिय रह सकें व अपनें आत्मविश्वास से उत्तर दे सकें।

प्रश्नों के प्रकार

प्रश्नों को दो आधारों में बाटा गया है- 1. मानसिक आधार पर 2. उत्तरों के आधार पर

1. मानसिक आधार पर - इस आधार पर प्रश्नों को दों भागों में बाटा गया है-

1. स्मृत्ति प्रश्न 2. विचारात्मक प्रश्न

1. स्मृत्ति प्रश्न - ये प्रश्न छात्रों के पूर्व पठित विषय -वस्तु, परिभाषा, प्रक्रिया,संख्या आदि से संबधित होते हैं। इनके उत्तर अपनी स्मृत्ति में उपस्थित ज्ञान से देने होते हैं। जैसे -प्रस्तावना प्रश्न, आवृत्यात्मक प्रश्न

प्रस्तावना प्रश्न - प्रस्तावना प्रश्न पाठ को आरम्भ करते समय किये जाते हैं जो प्रश्न, छात्र के पूर्वज्ञान पर आधारित होते है।

आवृत्ति प्रश्न - ये वे प्रश्न होते है जो पाठ की समाप्ति पर पाठ की सफलता तथा छात्रों की उपलब्धि का ज्ञान तथा शिक्षक की शिक्षण विधियों का पता लगाने हेतु पूछे जाते है।

2. विचारात्मक प्रश्न - ये पाठ के मुख्य शिक्षण पर आधारित तथा जटिल विषयों को स्पष्ट करनें के लिये पूछे जाते है। यंे प्रश्न अधिक कठिन स्तर के माने जाते है।जैसे बोध प्रश्न, विकासात्मक प्रश्न, तुलनात्मक प्रश्न।

बोध प्रश्न - बोध प्रश्न उन्हें कहते है जिनकी सहायता से शिक्षक को बच्चों को पढ़ाई गई विषयवस्तु का ज्ञान का ज्ञान होता है।

विकासात्मक प्रश्न- वे प्रश्न जिनके माध्यम से पाठ का विकास किया जाता हैं।

तुलनात्मक प्रश्न- वे प्रश्न जिनके माध्यम से पाठ के तथ्यों कि तुलना की जाती हैं।

 2 उत्तरों के आधार पर - इस आधार पर प्रश्नों को चार भागों में बाटा गया है-  अ. निबंधात्मक प्रश्न ब. लघुत्तरात्मक प्रश्न स. अतिलघुत्तरात्मक प्रश्न द. वस्तुनिष्ठ प्रश्न

अ.  निंबधात्मक प्रश्न- इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर निबंध के रूप में लिखना होता है। इसमें परीक्षक की मनोदशा का भी प्रभाव पड़ता है, इसमें आत्मगत तत्व की प्रधानता है।

ब.  लघुत्तरात्मक प्रश्न - इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर चार या पाच पंक्तियों में देना होता है। ये प्रश्न शिक्षण के लिये प्राण माने जाते है।  

स.  अतिलघुत्तरात्मक प्रश्न - इनका उत्तर एक पंक्ति या एक -दों शब्दों में दिये जा सकते है। ये प्रश्न पाठ के विकास के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण होते है।

द.  वस्तुनिष्ठ परीक्षण - वस्तुनिष्ठता का अभिप्राय वैयक्तिक तत्वों के निष्कासन से है। मूल्यांकन में अंतर ना हो प्रश्न ऐसे होने चाहिये । इस परीक्षण में अंकन करना सुगम होता है। ये कई प्रकार के होते है-

(अ). सत्य व असत्य या एकांतर प्रत्युत्तर में - इनमें दो विकल्पों में से एक को चयन करने के लिये कहा जाता है। इन प्रश्नों का प्रयोग विद्यालय के प्रत्येक स्तर के लिये किया जा सकता है।

(ब). बहुविकल्प या अपव्रत्य-चयन रूप -इस प्रकार के प्रश्नों के एक प्रश्न के उत्तर के रूप में कई विकल्प दिये रहते है, जिनमें से छात्रों को अधिक उपयुक्त उत्तर छांटने के लिये कहा जाता है।

(स). वर्गीकरण रूप - इसमें प्रश्नों के अंतर्गत कुछ ऐसे शब्दों का समूह छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, जिनमें से छात्रों से उसी शब्द कों छांटनें के लिये कहा जाता है।

प्रश्न कौशल में सावधानियाँ 

1. अध्यापक को ऐसे प्रश्न नहीं पूछना चाहिये कि प्रश्न की भाषा में ही उत्तर हो।

2. प्रश्न पूछते समय उपयुक्त गति से विराम देते हुये बोलना चाहिये।

3. अध्यापक की मुख मुद्रा प्रसन्न होनी चाहिये।

4. कक्षा का वातावरण सौहार्दपूर्ण होना चाहिये।

5. प्रश्नों को बार-बार नहीं दोहराना चाहिये।

6. प्रश्नों की भाषा स्पष्ट होनी चाहिये।

7. प्रश्न निश्चित उद्देश्य से पूछे जाने चाहियें।

    प्रश्न कौशल के होने से छात्रों में उत्साह पनपता है वे स्वयं का मूल्यांकन कर सकते है। किसी भी कक्षा में कक्षाध्यापक को पाठ के आरम्भ में प्रश्न पूछने से पाठ का उचित विकास होता है, परन्तु सर्व महत्त्वपूर्ण यह है कि अध्यापक को प्रश्न पूछना व किस तरह सरलता से छात्रों से उत्तर निकलवाना है आना चाहिये। 

प्रश्न कौशल को समझने के लिये हम एक प्रकरण उदाहरण में लेकर उसकी सारणी बनाते है-

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Dr. D R BHATNAGAR  

मंगलवार, 10 जनवरी 2023

Practicum and fieldwork Paper 1st (Knowledge and Curriculum}

Knowledge and Curriculum

Paper-1st 

Practicum/Field Work 

(Any one from the following)

1.Analysis of social myths in the light of scientific values Culture.

वैज्ञानिक मूल्यों और संस्कृति के प्रकाश में सामाजिक मिथकों का विश्लेषण।

 1. सैद्धान्तिक कार्य 

  •  प्रस्तावना
  • मूल्यो का अर्थ व परिभाषा 
  •  मूल्यो के प्रकार 
  • वैज्ञानिकता का अर्थ व परिभाषा
  • वैज्ञानिक मूल्य
  •  संस्कृति का अर्थ व परिभाषा 
  • समाज मे फैले हुए मिथको की जानकारी

 2. प्रायोगिक कार्य

  •  सामाजिक मिथक
  •  वैज्ञानिक मूल्यो सन्दर्भ मे मिथको का विश्लेषण 
  • सांस्कृतिक मूल्यो के सन्दर्भ मे मिथको का विश्लेषण
  •  निष्कर्ष 
  • सन्दर्भ साहित्य 

 2.Plan a child centered activity for enhancement of children education and values based on Shri Aurbindo or Giju Bhai thoughts.

बच्चे की शिक्षा और मूल्यों को बढ़ाने के लिए श्री अरविंदो या गिजू भाई के विचारों पर आधारित बाल केंद्रित गतिविधि की योजना बनाये।

                     1. सैद्धान्तिक कार्य 

  •  प्रस्तावना
  • बाल केंद्रित शिक्षा अर्थ व परिभाषा
  • श्री अरविंदो या गिजू भाई  का परिचय 
  • श्री अरविंदो या गिजू भाई के अनुसार बाल केंद्रित शिक्षा
  • श्री अरविंदो या गिजू भाई के अनुसार बाल केंद्रित शिक्षा के उद्देश्य
  •  श्री अरविंदो या गिजू भाई की रचनाए
  • बाल केंद्रित शिक्षा के लिए श्री अरविंदो या गिजू भाई के प्रयोग

 2. प्रायोगिक कार्य

  • श्री अरविंदो या गिजू भाई  के अनुसार बाल केंद्रित शिक्षण हेतु गतिविधि का चयन
  • बाल केंद्रित गतिविधि का विवरण 
  • बाल केंद्रित गतिविधि की योजना
  • गतिविधि संचालन की प्रक्रियाए 
  • गतिविधि का मूल्यांकन 
  • बाल केंद्रित गतिविधि का शिक्षा पर प्रभाव 
  • निष्कर्ष 
  • सन्दर्भ साहित्य 

3.Conduct a survey on feedback of curriculum from learners and teachers. Prepare a report. |

 शिक्षार्थियों और शिक्षकों से पाठ्यचर्या की प्रतिक्रिया पर एक सर्वेक्षण का निर्माण। एक रिपोर्ट तैयार करें।

1. सैद्धान्तिक कार्य 

  • प्रस्तावना
  • पाठ्यचर्या का अर्थ एवं परिभाषा
  • पाठ्यचर्या की आवश्यकता 
  • पाठ्यचर्या के गुण व दोष
  • सर्वेक्षण का अर्थ
  • सर्वेक्षण के प्रकार

 2. प्रायोगिक कार्य

  • अच्छी पाठ्यचर्या की विशेषताएँ

  • पाठ्यचर्या प्रतिक्रिया हेतु चेकलिस्ट का निर्माण
  • छात्र प्रतिक्रिया
  • अध्यापक प्रतिक्रिया
  • पाठ्यचर्या प्रतिक्रिया विश्लेषण
  • रिपोर्ट
  •  निष्कर्ष 
  • सन्दर्भ साहित्य 

04.Critical review of a text book in reference to gender issues social sensitivity and the local contexts/references included in the book.

लैंगिक मुद्दों, सामाजिक संवेदनशीलता के संदर्भ में एक पाठ्य पुस्तक की समालोचनात्मक समीक्षा| पुस्तक में शामिल स्थानीय संदर्भ में ।

 1. सैद्धान्तिक कार्य 

  •  प्रस्तावना
  •  पाठ्‌यपुस्तक का अर्थ
  •  पाठ्यपुस्तक की विशेषताएं 
  • लैंगिकता का अर्थ
  • समाज के लैंगिक मुद्दे
  • संवेदनशिलता का अर्थ 
  • सामाजिक संवेदनशिलता का अर्थ

 2. प्रायोगिक कार्य

  • राजस्थान माध्यमिक बोर्ड से संदर्भित पाठ्‌यपुस्तक विवरण 

  • पाठ्यपुस्तक में लैंगिक मुद्दों के संदर्भ में विषय पाठ्‌यपुस्तक की समीक्षा  

  • सामाजिक संवेदनशिलता के संदर्भ में विषय पाठ्‌यपुस्तक की समीक्षा 
  •  निष्कर्ष 
  • सन्दर्भ साहित्य 

5.Critical review or analysis of the text book at upper primary and | senior secondary level. 

उच्च प्राथमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर पाठ्य पुस्तक की समीक्षा या विश्लेषण करना ।

  1. सैद्धान्तिक कार्य 

  •  प्रस्तावना
  •  पाठ्यपुस्तक का अर्थ
  •  पाठ्यपुस्तक की परिभाषा
  •  पाठ्यपुस्तक की आवश्यकता व महत्व  
  • उच्च प्राथमिक स्तर व माध्यमिक स्तर के समीक्षा के बिन्दु  

 2. प्रायोगिक कार्य

  • पाठ्यपुस्तक का चयन

  • पाठ्यपुस्तक की समीक्षा 

    1. उद्देश्य के आधार
    2.  विषयवस्तु के आधार पर
    3.  पाठ्यक्रम निर्माण  के सिद्धांत के आधार पर

  • विश्लेषण 
  •  निष्कर्ष 
  • सन्दर्भ साहित्य 

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Dr. D R BHATNAGAR 

शिक्षण पर अनुसंधान के प्रतिमान – Gage, Doyle और Shulman

 शिक्षण पर अनुसंधान के प्रतिमान – Gage, Doyle और Shulman   1. Ned A. Gage का प्रतिमान जीवन परिचय: पूरा नाम: Ned A. Gage जन्म: 1917...