मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

भारतीय वैज्ञानिक - डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर (Dr. SHANTI SWAROOP BHATNAGAR)

 डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर

Dr. SHANTI SWAROOP BHATNAGAR


   

     सृष्टि के आरम्भ से लेकर वर्तमान युग में आज तक को चमत्कृत कर देने वाली समस्त वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हमें विज्ञान के बारे में अद्भुत जिज्ञासा देती रही है वैज्ञानिकों के अनवरत शोध ने विश्वभर में नित नये कीर्तिमान स्थापित किये है। एक से बढ़कर एक वैज्ञानिक नई - नई खाजों में हमें चैंकाते रहे है। इनमें भारतीय वैज्ञानिकों का महत्व प्राचीन काल से रहा है। पिछले 150 वर्षो में भारत भी कई ऐसे वैज्ञानिक हुए जिनके शोधकार्य ने उनका नाम ही नहीं रोशन किया अपितु भारत देश को संसार के वैज्ञानिक मानचित्र पर प्रतिष्ठित किया है। भारत के वैज्ञानिक सभी क्षैत्रों में हमेशा से अग्रणी रहे है। खगोल, रसायन विज्ञान, धातु विज्ञान, शरीर विज्ञान, सौर ऊर्जा आयुर्वेद, अन्तरिक्ष विज्ञान, परमाणु ऊर्जा आदि विज्ञान की सभी शाखा प्रशाखाओं और खोजों में भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान प्रशंसनीय रहा है। 

    भारत के कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों में से एक वैज्ञानिक ‘‘डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर‘‘ है। यह वैज्ञानिक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी थे। विज्ञान के युग में इनके शोधकार्य अतिप्रशंसनीय व सराहनीय रहें। इन शोधकार्यो की सफलता के लिये इन्हें कई पुरस्कार व उपलब्धियों प्राप्त हुई। हम इस वैज्ञानिक के जीवन - वृत का विस्तार से अध्ययन करेंगें। 

जन्म स्थली -डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर का जन्म 21 फरवरी 1894 को वर्तमान पाकिस्तान में स्थित शाहपुर जिले के भेरा नामक कस्बे में हुआ था। 

पारिवारिक स्थिति -डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर के पिता का नाम बाबू परमेश्वरी सहाय और माता का नाम पार्वती था। पिता हाई स्कूल में अध्यापक के पद पर कार्यरत थें। 

    जब वे मात्र छः महीने की उम्र के थे तब उनके पिता का देहान्त हो गया। तदुपरान्त इनका भरण-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, उनके ननिहाल में आरम्भ हुई। 

शैक्षिक पृष्ठभूमि -डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर की प्रारम्भिक शिक्षा सिकन्दराबाद के एंग्लोवैदिक हाई स्कूल में हुई। 1911 में शान्ति स्वरूप भटनागर ने लाहौर के दयाल सिंह हाई स्कूल से प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस योग्यता के परिणाम स्वरूप इन्हें छात्रवृत्ति प्राप्त हुई और वे दयाल सिंह काॅलेज में भर्ती हो गये। इस काॅलेज से इन्होंने एफ.ए. पास किया और बी.एस.सी. भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र और अंग्रेजी विषय लेकर क्रिशचियन काॅलेज लाहौर से पास की। 

    सन् 1916 में बी.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्होंने दयालसिंह काॅलेज में डिमाॅन्स्ट्रेटर के पद पर नौकरी कर ली। इस दौरान शीघ्र ही उन्हें आगे बढ़ने व अध्ययन करने का अहसास हुआ और नौकरी छोड़कर इन्होंने एम.एस.सी. में प्रवेश ले लिया। और 1919 में प्रथम श्रैणी से परीक्षा उत्तीर्ण की। 

    शान्ति स्वरूप शुरू से ही विज्ञान के प्रयोगों में रूचि रखते थे। और हर चीज को पुरी गहराई के साथ समझना चाहते थे। जब वे बी.एस.सी. व एम.एस.सी के छात्र थे। तब से ही उनके एक अध्यापक प्रोफेसर रूचिराम साहनी उनकी प्रगति पर नजर रखे हुये थे। और उन्हें शान्ति स्वरूप भटनागर की प्रतिभा पर पूरा भरोसा था। उन्होंने दयाल ट्रस्ट से सिफारिश की, कि शान्ति स्वरूप को उच्च शिक्षा के लिये अमेरिका भेजा जाना चाहिए। सौभाग्य से ट्रस्ट ने प्रोफेसर साहनी की सिफारिश मान ली और शान्ति स्वरूप को अमेरिका जाने का मौका मिला। 

    सन् 1919 में शान्ति स्वरूप पानी के जहाज से लन्दन गये जहाँ से उन्हें अमेरिका जाना था। लेकिन शान्ति स्वरूप को अमेरिका जाने वाले जहाजों में लन्दन से जगह नहीं मिल सकी। क्योंकि कि 1918 में विश्व युद्ध (World-war) समाप्त हुआ ही था। और सैनिक जहाज से वापस स्वदेश लौट रहे थे। यह स्थिति काफी दिनों तक रही। अतः तत्पश्चात् शान्तिस्वरूप ने लंदन में रहकर आगे। पढ़ने का निश्चत किया। शान्तिस्वरूप भटनागर ने दयालसिह ट्रस्ट को पत्र लिखकर लन्दन विश्वविद्यालय में रसायन विभाग के प्रोफेसर डोनन, कोलायड रसायन के क्षेत्र में अनुसंधान कर रहे थे। शान्तिस्वरूप ने डी.एस.सी. की डिग्री के लिये प्रोफेसर डोनन से मुलाकात की और उन्हें अपनी रूचि व काम दिखाया। प्रोफेसर डोनन उनके काम से प्रभावित हुए और इस तरह डी.एस.सी. की डिग्री के लिये विश्वविद्यालय के छात्र बन गये। सन् 1921 में डाॅ. शान्तिस्वरूप भटनागर ने डी.एस.सी. की डिग्री प्राप्त की। 

उत्कृष्ट देशप्रेम -डी.एस.सी. की डिग्री प्राप्त कर डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर जर्मनी और फ्रांस गये। और इस प्रकार से शान्ति स्वरूप वहाँ के वैज्ञानिकों के सम्पर्क में आऐ। उन्हीं दिनों मदन - मोहन मालवीय की शान्ति स्वरूप पर नजर पड़ी। और मदन मोहन मालवीय ने उन्हें बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में आने का निमंत्रण दिया। शान्ति स्वरूप अपने उत्कृष्ट देशप्रेम के कारण तमाम सुख-सुविधाओं महत्वाकांक्षाओं, प्रलोभनों को ठुकराकर बनारस आ गये। 

वैज्ञानिक खोजे एवम सिद्धान्त तथा अनुसंधान -डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर का लक्ष्य विज्ञान के क्षेत्र मे नयी - नयी करना ही नही वरन  उन्हें मानव जाति के उपयोग लगाना और स्वदेश की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालना भी था । 

डाॅ. भटनागर के मुख्य अनुसंधानो में कुछ प्रमुख इस प्रकार है -

  • रेल के धुरी को ठण्डा करने के लिए, नया तेल तैयार किया । 
  • मिठाईयाॅ लपेटने के कागज के लिये पेराफीन मोम को गंधहीन पद्धति खोजी। 
  • चुम्बकीय रसायन पर खोज की और इस विषय पर पहली पुस्तक लिखी जिसकी देश - विदेश में काफी ख्याति रहीं। 
  • इन्होंने पैट्रोलियम व मिट्टी के तेल की समस्याओं पर अनुसंधान किये। 

    डाॅ. भटनागर ने डेढ सौ से अधिक शोध-पत्र प्रकाशित किये। और तीस से भी अधिक विधियाँ पेटेन्ट करवाई। इन्होंने पूरे भारत वर्ष में 11 भारतीय अनुसंधान प्रयोगशालाओं की आधारशिला रखी। 

डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ -सन् 1942 में (CSIR काउन्सिल ऑफ साइन्तिफिक एण्ड इण्डस्ट्रियल रिसर्च)की स्थापना हुई। और शान्ति स्वरूप भटनागर इसके निदेशक नियुक्त किये गये। 

  • सन् 1943 में शान्ति स्वरूप राॅयल सोसायटी के फेलो चुने गये। 
  • विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) डाॅ. भटनागर की सूझबूझ है। और वे इसके आरम्भ में अध्यक्ष रहें। 

    देश में विभिन्न प्रयोगशालाओं की स्थापना CSIR द्वारा की गई व इनमें हो रहे अनुसंधानों का लाभ देश के उद्योगों तक पहुँचाने के लिये राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम की स्थापना डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर की ही देन है। उद्योगों के उत्पादों की गुणवत्ता सुधार के लिये भारतीय मानक संस्था भी उन्हीं की ही देन है। 

पुरस्कार व उपाधियाँ -डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर को अंग्रेज सरकार ने सन् 1936 में ओबीआई (OBI) की उपाधि प्रदान की। सन् 1941 में इन्हें सर का खिताब दिया गया था। 

    सन् 1954 में भारत सरकार ने डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर को ‘‘पद्म विभूषण‘‘ की पद्वी से सम्मानित किया था। 

    डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर प्रारम्भ समय से ही मेहनती, परिश्रमी व प्रतिभाशाली थे। उनका सारा जीवन-काल विज्ञान के क्षैत्र में भारत को अग्रणी बनाने में ही बीत गया। 

    डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर एक सच्चे भारतीय और देशभक्त थे। यह कोमल हृदय कवि भी थे। इन्हें अंग्रेज व भारत सरकार द्वारा सम्मानित किया गया। 

    आज भी प्रतिवर्ष डाॅ. भटनागर के सम्मान में भारत के प्रतिभाशाली  वैज्ञानिकों तथा को डाॅ. शान्ति स्वरूप भटनागर पुरस्कार दिया जाता है। 1 जनवरी 1955 को उनका निधन हो गया। 

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Dr. D R BHATNAGAR 

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

भारतीय पुरावनस्पतिविद् व भूविज्ञानी - डॉ. बीरबल साहनी (Indian Paleobotanist and Geologist - Dr. Birbal Sahni)

 भारतीय पुरावनस्पतिविद् व भूविज्ञानी - डॉ. बीरबल साहनी
Indian Paleobotanist and Geologist - Dr. Birbal Sahni


एक महान वैज्ञानिक जिन्होंने अपना पूरा जीवन ज्ञान को पाने के लिए समर्पित किया जिन्होंने ऊँचे से ऊँचे लोक प्रशासनिक पदों को अस्वीकार किया। वे प्रतिभाशाली थे उन्होंने हर क्षैत्र में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी। वह एक महान शिक्षक होने के साथ - साथ एक महान व्यक्ति भी थे। 

यह पंक्तियों एम. जयाम अडिग ने डाॅ. बीरबल साहनी के लिए लिखी थी।

        डाॅ. बीरबल साहनी विश्वव्याख्यात एक भारतीय पुरावनस्पतिविद् थे। इन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के जीवाश्म पौधे सम्बन्धी विज्ञान को प्रगति के पथ पर बढ़ाया।, वे एक भूविज्ञानी भी थे जिन्होंने पुरातत्व में रुचि ली। उन्होंने लखनऊ, भारत में बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान की स्थापना की। इन्हें डॉक्टरेट की उपाधियाँ और कई पुरस्कारो से सम्मानित भी किया गया। 

परिचय -मौलाना अब्दुल कलाम आजाद जो स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री थे। उन्हें अपनी सत्ता में शिक्षा के क्षैत्र में एक माने हुए वैज्ञानिक की तलाश थी जो शिक्षा मंत्री पद को भली-भांति संभाल सके। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने उन्हें शिक्षा मंत्री पद का प्रस्ताव दिया जिसको इन्होंने अस्वीकार कर दिया। उन्होने सरकार को पत्र लिखा की ‘‘मैं अपना सम्पूर्ण जीवन वैज्ञानिक संस्था को समर्पित करना चाहता हुँ, इसलिए मुझ पर कोई अलग जिम्मेदारी का भार न डाले।‘‘ उन्होंने कई ऊँचे से ऊँचे सरकारी पदों को ठुकरा दिया। उनके लिए इन पदों का कोई मोल नहीं था वे थे डाॅ. बीरबल साहनी - एक विश्वविख्यात महान प्राचीन वनस्पतिशास्त्र (पेल्योबाॅटनी)। 

डाॅ. बीरबल साहनी -डाॅ. बीरबल साहनी एक जागरूक नौजवान होते हुए भी कभी उन्हे लोक प्रशासनीक सेवा में कोई रूचि नहीं थी। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन विज्ञान को समर्पित किया था। डाॅ. बीरबल साहनी की रूचि प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने में थी और वे इसका प्रयत्न जीवनभर करते रहे। 

इसे अलावा उनका वैज्ञानिक खोजो को व शोध क्रियाओं को बढ़ावा देने में भी था। डाॅ. बीरबल साहनी लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रध्यापक पद पर कार्यरत थे। उन्हें जीवनोपरांत भी अपने छात्रो का प्यार मिला। डाॅ. बीरबल साहनी ने ही भारत में जीवाश्य पौधे सम्बन्धी विज्ञान को प्रगति को प्रगति पथ पर बढ़ाया। वे ही इसके मार्गदर्शक थे। 

पेल्योबाॅटनी -पेल्योबाॅटनी अर्थात् प्राचीन वनस्पति शास्त्र जिसमें जीवाश्म पौधो का अध्ययन होता है। ये जीवाश्म पौधे पृथ्वी की सतहों में तथा विभिन्न प्रकार के पत्थरों में पाये जाते थे। जीवाश्य पौधों का अध्ययन, भूतत्व विद्या विषयक तथा वनस्पति शास्त्र से जुड़ा हुआ है।

पेल्योबाॅटनी, पृथ्वी के ढ़ाचे तथा पौधो के क्रमिक विकास के रहस्यों को हल करने में सहायक है। इसके अतिरिक्त भूतकाल में महाद्वीपों की गति का होना आदि सम्बन्धी परिवर्तनों के रहस्यों की जानकारी प्राप्त करने में भी पेल्योबाॅटनी विषय सहायक है। पेट्रोलियम की खोजो तथा पेट्रोलियम व कोयले की खोजों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। 

डाॅ. बीरबल साहनी भूगर्भशास्त्र व वनस्पति शास्त्र दोनो के गुरू थे। उन्हें इस क्षैत्र में सर्वोच्च पद प्राप्त था। बचपन से ही उनकी रूचि प्रकृति की ओर थी। पर्वतों की सैर, विभिन्न प्रकार की पत्तियों का संग्रह करना, पत्थरों का संग्रह करना आदि उनके शौक थे। 

पारिवारिक स्थिति -बीरबल का जन्म 14 नवम्बर 1891 में हुआ। वे लाला रूचिराम साहनी और श्रीमती ईश्वर देवी के दूसरे पुत्र थे। बीरबल का परिवार शाहपुर जिले के एक छोटे से कस्बे बेहरा में रहते थे। (जो वर्तमान में पाकिस्तान में पश्चिमी पंजाब का भाग है।)

रूचिराम के पिता उनके बचपन में ही गुजर गए जिस कारण उन्हे कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। लेकिन वे बहुत प्रतिभाशाली छात्र थे जिसके बलबूते पर उन्होंने अपनी शिक्षा छात्रवृत्तियों के आधार पर पूर्ण की। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् वे लौहार गवर्नरमेंट काॅलेज में रसायन विषय के प्राध्यापक पद पर कार्यरत हो गये। 

बीरबल साहनी के पिता स्वदेश भक्ति व समाजसेवी थे। उन्होंने आजादी की लड़ाई में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। जिसके कारण उनके घर में उदारता, स्वदेश भक्ति, प्रचण्डता आदि। गुणों का समावेश सदा बना रहा और यही गुण बीरबल साहनी में भी थे। बीरबल साहनी की माता धार्मिक प्रवृत्ति की थी। उनका स्वप्न था कि उनके सभी बच्चो को अच्छी शिक्षा मिले। उनके पाँचों बेटो ने यूरोपीय विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अपनी बेटियों को भी शिक्षा प्रदान की। बीरबल सदैव अपने परिवार का सम्मान करते थे। बीरबल ने अपने पिता के लिए कहा था कि मुझे मेरे पिता पर नाज है और मुझे नाज है कि ‘‘मैं पुराने लकड़ी के कुन्दे में से निकला लकड़ी का पत्थर हुँ।(“A clip of the old black”)

शैक्षणिक स्थिति -बीरबल साहनी ने सन् 1911 में  B.Sc.  स्नातक की परीक्षा पास की। उनके पिता रूचिराम साहनी का सपना था कि उनके परिश्रमी पुत्र को लोकप्रशासनीक सेवा में भेजे। वे सदैव बीरबल के लिए। इंडियन सिविल सर्विसेज की जीवनवृत्ति की सोचते थे। परन्तु बीरबल को इसमें कोई रूचि नहीं थी। बीरबल ने अपने पिता से कहा था कि ‘‘मैं आपके निर्णय के खिलाफ नहीं जाना चाहता लेकिन मेरी रूचि वनस्पति शास्त्र में शोध करने की है।‘‘

बीरबल के पिता ने उनकी बात मान ली और बीरबल को केम्ब्रिज में उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए इग्लैण्ड भेजने का निर्णय ले लिया। वहाँ पर बीरबल के बड़े भाई विक्रमजीत औषधियों की पढ़ाई कर रहे थे। उन्होंने बीरबल को केमब्रिज बुलाया और वहाँ इमेनुमत महाविद्यालय में भर्ती करवा दिया। तीन दिन के भीतर ही बीरबल अपने भाई के पास लंदन चले गये। उन्हें घर वापस जाने का मन कर रहा था बस उनके आंसु ही निकलने बाकी थे। उन्हें घर की याद बहुत सता रही थी। घर से बाहर रहने में खिन्नता हो रही थी। विक्रमजीत के लिए कोई आसान काम नहीं था कि बीरबल को समझाए। विक्रमजीत ने बीरबल को वापस केमब्रीज जाकर दुबारा अपनी शिक्षा आरम्भ करने को कहा और बीरबल ने ऐसा ही किया और मन से अपने घर जाने की इच्छा पर विजय प्राप्त कर ली। 

केमब्रिज में विद्यार्थीयों व शिक्षकों के बीच सदैव अच्छा तालमेल बना रहता था। बीरबल एक बहुत ही प्रतिभाशाली छात्र थे। उन्हें कई सार्वजनिक शिक्षकों द्वारा बहुत स्नेह मिला। बीरबल साहनी 1914 में Natural Science (Botany & Zeology) में  B.Sc. की डिग्री प्राप्त की और जल्दी ही वे उत्तेजित मार्गदर्शक प्रधानाध्यापक ए.सी. सेवार्ड के अधीन शोध क्रिया में लग गये। प्रोफेसर सेवर्ड माने हुए वैज्ञानिक थे इन्हें Natural Science विषय की प्रभुत्वता प्राप्त थी। इस महान शिक्षक के अधीन कार्यरत रहकर बीरबल ने पशुओं के आकार का अध्ययन करने के शास्त्र अर्थात माॅरफालोजी और साथ ही साथ जीवाश्म पौधे के विषय में शीघ्रता से और आन्तरिक स्थिति में अध्ययन किया।  

बीरबल साहनी की भारत वापसी -भारत लौटने पर बीरबल साहनी ने एक-एक साल बनारस व पंजाब यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। सन् 1920 में शादी सावित्री से हुई जो उनके पिता रूचिराम साहनी के घनिष्ट मित्र सुन्दरदास की बेटी थी। सावित्री विज्ञान स्नातक थी और विनम्रशील थी। सावित्री बीरबल की सच्ची साथी सिद्ध हुई। हमेशा बीरबल के साथ रहकर मुश्किलों का सामना करती। चाहे वह कोई शैक्षिक भ्रमण भारत में हो या विदेशों में। सावित्री ने अपनी पूरी जिन्दगी को बीरबल के जीवन व कार्यो को सौप दी थी। 

कार्यक्षैत्र - सन् 1920 में भारत के भूगर्भशास्त्र निरिक्षकों ने कुछ जीवाश्य पौधों को निरीक्षण के लिए विदेश में विख्यात वैज्ञानिकों के पास भेजा। तब सन् 1920 में प्रो. सेवर्ड ने भारतीय निरीक्षकों के इस शोध को लेने से इंकार कर दिया और कहा कि यह कार्य बीरबल साहनी को दिया जाना चाहिए। जो कि एक योग्य भारतीय वैज्ञानिक है। बीरबल ने इस डिपार्टमेंट से एक समीप कार्यशाला बनायी थी। जो गत 12 वर्षो से चल रही थी। बीरबल साहनी के इस कार्य को देखते हुए कलकत्ता में गोंडवाना गैलरी में उनकी उध्र्वाकाय मूर्ति बनायी गई। 

सन् 1921 में बीरबल साहनी को लखनऊ में न्यूबोर्न यूनिवर्सिटी में प्रधानाध्यापक व Head of Department  पद पर नियुक्त किये गये। उसी वर्ष बीरबल साहनी के पढ़ाई के निर्धारित समय होने के बावजूद उन्होंने अपनी शोधक्रिया को निरन्तर चलने दिया। उनके इस विशिष्ट हुनर को सराहने के लिए बीरबल साहनी को केमब्रीज यूनिवर्सिटी द्वारा डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई। उन्हें सन् 1929 में Doctorate of Science की उपाधि प्राप्त हुई। बीरबल ऐसे पहले भारतीय वैज्ञानिक थे जिनको यह उपाधि दी गई थी।

कई छात्रों ने शोध करने के लिए सन् 1933 में लखनऊ यूनिवर्सिटी में वनस्पतिशास्त्र में आवेदन दिया और उसके बाद बीरबल साहनी के काॅलेज के साथियों तथा वैज्ञानिको ने उनके इस कार्य में सहयोग देना शुरू किया। 

बीरबल साहनी सदैव छात्रों का अत्यन्त शोचनीय तरिके से परिक्षा लेते और शीघ्रता व शुद्धता से उनकी असली कीमत को पहचानते। उनके महाविद्यालय के परिक्षा पत्रों में सदैव सीधे प्रश्नों तथा वैज्ञानिक ढंगो द्वारा प्रदर्शन करते थे। वे हमेशा कहते थे कि ‘‘आप क्या जानते है, उसे सीधे शब्दों में कहो।‘‘ बीरबल साहनी को अपनी भाषा पर पूर्णतया लगाम थी। वे इसके अलावा जर्मन व फ्रेंच के स्नातोत्तर छात्रों को भी पढ़ाते थे। 

बीरबल साहनी का कार्यक्षैत्र में समर्पण -सन् 1930 में बीरबल साहनी को लखनऊ यूनिवर्सिटी में कार्यसम्पादनी सभा का कार्यभार सौप दिया गया। तीन वर्ष बाद उन्हें विज्ञान विषय का अध्यक्ष बना दिया गया। यह पद उन्हें जीवन भर मिला रहा। बीरबल साहनी का मानना था कि वह छात्र जो वनस्पति शास्त्र और भूगर्भ शास्त्र दोनों विषय पढ़ चुके है, वे पेल्योबाॅटनी विषय को अच्छी तरह से अध्ययन कर सकते है। इसी के चलते सन् 1943 में उनकी प्रतिष्ठा को देखते हुए उन्हें लखनऊ यूनिवर्सिटी में भूगर्भशास्त्र का अध्यक्ष बना दिया गया। वे नौकरचाकरी व कार्यालय के कार्य से स्वतन्त्र थे। वे प्रतिभाशाली अध्यक्ष सिद्ध हुए। वे अपने साथियों तथा साथी वैज्ञानिकों को भी बिना योग्यता के कार्य नहीं सौपते थे। बीरबल साहनी के लिए योग्यता का मोल था। 

बीरबल साहनी हमेशा कहते थे कि ‘‘कला का अन्त नहीं है, समय बीतता जा रहा है और कठिन परिश्रम कभी भी नहीं मरता।‘‘ 

बीरबल साहनी यात्रा करने में अपना समय नहीं गंवाते थे। वह यात्रा के समय भी कुछ ना कुछ पढ़ना और विषय सम्बन्धि लेख बनाते थे। 

    बीरबल साहनी का प्यार और उनका सपना उनकी शोधशाला थी। जिसको वे दिन-रात मेहनत करके एक विख्यात संस्था बनाना चाहते थे। उन्होंने अपनी इस शोध संस्था को प्रोत्साहित करने के लिए एक पुरस्कार रखा, जिसका नाम ‘‘द रूचिराम साहनी रिसर्च पुरस्कार‘‘ रखा गया जो बीरबल साहनी के नाम पर उनकी याद में रखा गया। प्रत्येक वर्ष वनस्पति शास्त्र शोधकार्य में इस शोध संस्था द्वारा यह पुरस्कार दिया जाता है। प्रोफेसर साहनी के मासिक भत्ते में से जो कि विज्ञान विभाग के अध्यक्ष थे में से इकट्ठा की गयी लागत को इस पुरस्कार के लिए जमा किया जाता है। 

    वर्ष - प्रतिवर्ष वनस्पति शास्त्र में छात्रों की संख्या बढ़ती गयी और शिक्षक के लिए कक्ष कम पड़ते गये। बीरबल साहनी का भी अपना कोई कक्ष नहीं था। वे हमेशा वनस्पति शास्त्र कौतुक भण्डार में बैठा करते थे। एक बार विदेश से कोई अतिथी उनके विभाग में भ्रमण के लिए आए। उन्होंने सारे विभाग का भ्रमण किया और पूछा कि ‘‘प्रोफेसर साहनी का कार्यकक्ष कहाँ है?‘‘ अतिथी ने देखा की प्रोफेसर साहनी कौतुक भण्डार के एक कोने में मेज लगाकर कार्य करते है तो वे चिल्लाएँ - ‘‘क्या? प्रोफेसर का अपना कोई कक्ष नहीं है।‘‘ लेकिन उसके तुरन्त बाद शांत होकर सोचने लगे कि ‘‘हाँ एक महान वैज्ञानिक ॲटारी में रहने पर भी सारे विश्व का कार्य कर सकता है।‘‘ 

उपाधियाँ - बीरबल साहनी ने भारत में वनस्पति शास्त्र जनसमूह स्थापित करने के लिए कुछ महान वैज्ञानिकों से हाथ मिलाया और सन् 1921 में वनस्पति शास्त्र मण्डली को स्थापित किया। सन् 1924 में वे इस मण्डली के अध्यक्ष बने। सन् 1921 में बीरबल साहनी को भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने Botanyके लिए अध्यक्ष नियुक्त किया। केमब्रिज से लौटने पर दो साल बाद उन्हें 1926 में भूगर्भशास्त्र का अध्यक्ष बनाया गया और वे दूबारा Botany के अध्यक्ष बने। 

जब सन् 1938 में विज्ञान कांग्रेस की 25 वीं वर्षगाँठ थी। उन्हें यह सम्मान सन् 1940 तक मिला। बीरबल साहनी दो बार Natianal academy of Science  के अध्यक्ष रहे। बीरबल साहनी सभासद व उप-अध्यक्ष के रूप में Indian academy of Science और National academy instilution of Science में कार्यरत रहे। इसके अलावा कृषि विज्ञान में भी भारतीय सभा के अध्यक्ष रहे। बीरबल साहनी बैगलोर में Governing council of the Indian institution of Science के सदस्य थे और कलकत्ता में एशियटिक सोसायटिक के सहचर थे। 


बीरबल साहनी अन्तर विश्वविद्यालय परिषद् के कृर्षि सम्बन्धी शोध कार्यशाला के प्रतिनीधि बने। बीरबल साहनी ने भारत में कई विज्ञान के रहस्यों को उजागर करने के लिए सदैव अपने आप को कई विज्ञान विषय से जोड़ा रखा। 

कई भारतीय विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टरेट की उपाधियाँ मिली और कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। बीरबल साहनी ने बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में अवैतनिक प्रोफेसर के रूप में Botany विभाग में काम किया। राॅयल एशियटिक सोसायटी ऑफ बंगाल द्वारा बीरबल साहनी को बारक्ले मैडल (Barclay Medal) मिला जो उनको Botany में विशिष्ट शोध कार्य के लिए मिला था। 

    बीरबल साहनी ने सन् 1945 में राॅयल सोसायटी द्वारा आयोजित वैज्ञानिकों के सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। सन् 1947 में यूरोप और अमेरिका के शोधकार्य शाला के भ्रमण हेतु भारतीय सरकार ने बीरबल साहनी को नियुक्त किया। 

सन् 1930 और 1935 में राष्ट्रीय कांग्रेस के पेल्योबोटनी विभाग के दो बार उप-अध्यक्ष बने। बीरबल साहनी ने सम्पादन सम्बन्धी क्षैत्र में भी दैनिक पत्र निकाला जिसका नाम -“Chronica Botanica” रखा गया। बीरबल साहनी को अन्तर्राष्ट्रीय पेल्योबोटनी संघ का उपा-अध्यक्ष बनाया गया। बीरबल साहनी के अवैतनिक परदेशी सदस्य थे। सन् 1939 में लंदन की राॅयल सोसायटी के सहचर के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। यह पद/नियुक्ति विज्ञान के क्षैत्र में सबसे उच्च पदों में से भी उच्च था। बीरबल साहनी ऐसे पाँचवे भारतीय थे जिनको यह सम्मान मिला था। 

महान वैज्ञानिक की इच्छा-प्रेरणा -बीरबल साहनी का लक्ष्य सफल हो रहा था लेकिन दुष्ट भाग्य ने इस नायक से उसका अच्छा वक्त छिन लिया। संस्था के विकासात्मक कार्य ने डाॅ. बीरबल साहनी को दबाव और अधिक्याधिक प्रयत्नशील बना दिया था जो उनके स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डालता जा रहा था। 8 अप्रैल 1949 की शाम को बीरबल साहनी को दिल का दौरा पड़ा। 10 अप्रैल को उनकी मृत्यु हो गयी और संस्था ने एक किमती रत्न को सदा के लिए खो दिया। बीरबल साहनी सिर्फ 57 साल के थे। बीरबल साहनी सन् 1950 में अन्तर्राष्ट्रिय Botany विषयक कांग्रेस के अध्यक्ष नियुक्त किये गये परन्तु अफसोस वो संसार से अलविदा ले चुके थे। 

उनकी मृत्युपरान्त उनकी पत्नी सावित्री इस संसार में अकेली रह गयी। उनके कोई बच्चा भी नहीं था। परन्तु सावित्री बहुत ही बहादुर औरत थी। उन्होंने हर मुसीबत का सामना हिम्मत से किया और निश्चय किया कि अपने प्रख्यात पति के ऊँचे आदर्शो को सफल करेगी/बनाएगी और अपना जीवन शोध संस्थ के विकास को समर्पित करने का निश्चय किया। सन् 1952 के अन्त में सावित्री साहनी को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ओर से दिया गया। ओर इस संस्था का नाम सावित्री साहनी के स्वर्गीय पति के नाम पर रखा ‘‘बीरबल साहनी इंस्टीट्यूशन ऑफ पेल्योबाॅटनी‘‘। 

डाॅ. बीरबल साहनी एक महान वैज्ञानिक थे जिनका सम्पूर्ण जीवन ज्ञान को पाने में समर्पित कर दिया गया था। उन्हें विज्ञान के ज्ञान को पाने की इतनी ललक थी कि उन्होंने कई पदों को अस्वीकृत कर दिया था। डाॅ. बीरबल साहनी भारत में जीवाश्य पौधे सम्बन्धी विज्ञान के मार्गदर्शन थे। वह पेल्योबाॅटनी विषय के ज्ञाता थे। उन्होंने अपने ज्ञान के आधार पर देश ही नहीं वरन् विदेशों में भी अपनी पहचान बनायी। उन्हें देश-विदेश में कई उपाधियाँ व पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हीं के नाम पर ‘‘बीरबल साहनी इंस्टीट्यूशन ऑफ पेल्योबोटनी‘‘ नामक संस्था की स्थापना कि गयी। 

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Dr. D R BHATNAGAR 

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 (Right to Education Act 2009)

 शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009

(Right to Education Act 2009) 

    देश में 6 से 14 वर्ष के हर बालक बालिकाओं को नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 बनाया गया है। यह अधिनियम पूरे देश में अप्रेल 2010 से लागू किया गया है। 6 से 14 बालिकाओं को निःशुल्क और अनिवार्य अधिनियम हर बालक 2009 बनाया गया है। यह अधिनियम पूरे देश में अप्रेल 2010 से लागू किया गया है। 6 से 14 वर्ष की आयु के हर बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है। संविधान के 86 वे संशोधन के द्वारा शिक्षा के अधिकार को प्रभावी बनाया गया है। सरकारी विद्यालयों द्वारा सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करायेगें और विद्यालयों का प्रबंध विद्यालय प्रबंध समितियों द्वारा किया जायेगा। निजी विद्यालय न्युन्तम 25 प्रतिशत बच्चों को बिना किसी शुल्क के नामांकित करेंगे।

RTE-2009 की अवधारणा :- किसी पड़ौस के विद्यालय में प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने तक नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए बच्चों का अधिकार । यह स्पष्ट करता है कि अनिवार्य शिक्षा का तात्पर्य छह से चौदह आयु के प्रत्येक बच्चों को निःशुल्क प्रारम्भिक शिक्षा प्रदान करने और अनिवार्य प्रवेश उपस्थिति और प्रारम्भिक शिक्षा को पूरा करने को सुनिश्चित करने के लिए उचित सरकार की बाध्यता से है । यह अन्यों के साथ-साथ, छात्र शिक्षक अनुपात ( पीटीआर) भवन और अवसंचरना विद्यालय के कार्य दिवस, शिक्षक के कार्य के छटों से संबंधित मानदण्डों और मानकों को निर्धारित करता है।

RTE का अर्थ :- नि: शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा (आरटीई) अधिनियम 2009 में बच्चों का अधिकार जो अनुच्छेद 21 क के तहत परिणामी विधान का प्रतिनिधित्व है, का अर्थ है कि औपचारिक स्कूल, जो कतिपय अनिवार्य मानदण्डों और मानकों को पूरा करता है, में संतोषजनक और एकसमान गुणवता वाली पूर्णकालिक प्रारंभिक शिक्षा के लिए प्रत्येक बच्चे का अधिकार है। "Right to Education" अर्थात् प्रत्यकेव्यक्ति को प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार है चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, समुदाय, राज्य का निवासी हो, उस प्राथमिक रूप से शिक्षा मिलनी ही चाहिए।

RTE की आवश्यकताः- यह विधेयक महत्वपूर्ण है क्योकि संवैधानिक संसोधन लागू, करने की दिशा में सरकार की सक्रिय भूमिका का यह पहला कदम है। और यह विधेयक इसलिए भी महत्त्पूर्ण है क्योकि-

• इसमें निः शुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक तथा माध्यमिक शिक्षा का कानूनी प्रावधान है ।

• प्रत्येक इलाके में एक स्कूल का प्रावधान है।

• इसके अन्तर्गत एक स्कूल निगरानी समिति के गठन का प्रावधान है जो समुदाय के निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम स्कूल की कार्यप्रणाली की निगरानी करेगी।

 6 से 14 साल के आयुवर्ग के किसी भी बच्चे को नौकरी में नहीं रखने का प्रावधान है। उपरोक्त प्रावधान एक सामान्य स्कूल प्रणाली के विकास की नींव रखने की दिशा में प्रभावी कदम है। इससे सभी बच्चों को गुणवतापूर्ण शिक्षा दी जा सकेगी और इस प्रकार सामाजिक तथा आर्थिक रूप से वंचित वर्गो को अलग-थलग करने में रोक लग सकेगी।

RTE-2009 की संवैधानिक स्थिति :- उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने प्रमाती शैक्षिक और सांस्कृतिक ट्रस्ट और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में न केवल बच्चों की नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम, 2009 को वैध एंव संवैधानिक घोषित किया गया है

RTE की संवैधानिक स्थिति में 7 अध्याय 38 धाराएँ एंव 1 अनुसूची को शामिल किया गया है-

अध्याय :- इसमें कुल 7 अध्याय है।

अध्याय 1- प्रस्तावना

अध्याय 2 - अधिनियम लिखा गया है।

अध्याय 3- समुचित सरकार के प्राधिकारी वर्ग के अधिकार दायित्व व माता-पिता के कर्त्तव्य |

अध्याय 4- शिक्षक के अधिकार एंव दायित्व ( विद्यालय मानक ) के अनुसार, योग्यता । 

अध्याय 5 - पाठ्यक्रम निर्माण करने वाले अधिकारी के अधिकार एंव दायित्व ।

दायित्व (1) :- राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की पृष्ठभूमि वाला पाठ्यक्रम ।

दायित्व ( 2 ) :- पाठ्यक्रम गुणवतापूर्ण, लचीला एंव प्रांसगिक हों ।

दायित्व ( 3 ) दायित्व (4) :- पाठ्यक्रम गुणवतापूर्ण, लचीला एंव प्रासंगिक हों । :- पाठ्यक्रम रोजगार प्रदान करने वाला हो

अध्याय 6– बाल संरक्षण अधिकार अधिनियम 2005 का उल्लेख है जो कि बालको के अधिकारों की सुरक्षा करता हो ।

अध्याय 7- प्रकीर्ण का उल्लेख है जिसमें समुचित सरकार को ये अधिकार है कि तय मानकों में परिवर्तन या प्रावधान करती है।

अधिनियम की धाराएँ इसमें कुछ प्रमुख धाराओं का वर्णन है जो निम्न प्रकार है

धारा - 1 मदरसौ, वैदिक पाठशालाओं पर लागू नहीं

धारा - 2 परिभाषा या शब्दावली ।

धारा - 3 प्रत्येक बालक को निःशुल्क एंव अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार ।

धारा - 4 बालक को उसकी आयु के अनुसार कक्षा में प्रवेश दिया जाए ।

धारा - 5 यदि किसी बालक को अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण करने के अवसर प्राप्त न हो तो वह अपनी शिक्षा पूर्ण करने के लिए विद्यालय स्थानान्तरण का हक रखता है। 

धारा - 6 सरकार का कर्तव्य है कि वह परिस्थिति के अनुसार विद्यालय का निर्माण करें ।

धारा - 7 यह अधिनियम की वित्तीय स्थिति को दर्शाती है।

धारा - 8 समुचित सरकारी कर्तव्य को शामिल किया गया है, इसमें सरकार समुचित

 शिक्षा उपलब्ध कराने हेतु सम्पूर्ण प्रयास करें।

धारा - 9 स्थानीय प्राधिकारी के दायित्व ।धारा 10 माता - पिता के कर्तव्य ।

धारा - 11 समुचित सरकार को निर्देश देती है कि वह आयु वर्ग 1-5 वर्ष की देखभाल को सुनिश्चित करें।

धारा - 12 निम्न वर्ग को कक्षा 1 व 2 में 25 प्रतिशत आरक्षण ।

धारा - 13 बालक के प्रवेश के समय प्रवेश तथा शिक्षण शुल्क नहीं लिया जावें । धारा - 14 आयु से संबंधित दस्तावेज नहीं होने पर शिक्षा से वंचित नहीं ।

धारा - 15 बालक की प्रवेश तिथि के संदर्भ में सूचना मध्य जा सकता है। - सत्र में भी प्रवेश दिया

धारा - 16 कक्षा 1 से 8 तक आयु वर्ग 6-14 वर्ष के बालकों को किसी भी स्तर पर अवरोधक नहीं किया जायेगा।

धारा- 17 बालक का शारीरिक एंव मानसिक शोषण नहीं किया जावे। यह दण्डनीय अपराध की श्रेणी में होगा ।

धारा - 18 यदि कोई विद्यालय प्रबंध सरकार द्वारा तय मानकों को पूरा करता है तो उसे विद्यालय संचालन की अनुमति दी जाये ।

धारा-19 यदि कोई विद्यालय प्रबंधन तय मानकों को पूरा नहीं करता है तो विद्यालय की मान्यता रद्द की जायें।

धारा - 20 सरकार को यह अधिकार है कि वे विद्यालयों के तय मानको के परिवर्तन का प्रावधान करती है।

धारा - 21 SMC का गठन ।

धारा - 22 SMC द्वारा बनायी गयी विद्यालय विकास योजना को क्रियान्वित करती है

धारा - 23 शिक्षक की योग्यता

प्राथमिक स्कूल में - BSTC + 50% ( 12th )

उच्च प्राथमिक स्कूल में B.Ed + U.G

धारा - 24 शिक्षक के दायित्व और नियुक्ति ।

धारा - 26 10 प्रतिशत से अधिक शिक्षक पद रिक्त नहीं होने चाहिए।

धारा 27 शिक्षक शिक्षण के अतिरिक्त आपातकाल और निर्वाचन व जनगणना संबंधित कार्य करेगा।

धारा - 28 कोई भी विद्यालय शिक्षक नीजी या प्राइवेट ट्यूशन नहीं करवायेगा और करवाने पर दण्डनीय अपराध का भागी होगा। 

धारा - 29 पाठ्यक्रम निर्माण करने वाले प्राधिकारी एवं कर्तव्य ।

धारा 30 प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने तक बोर्ड परीक्षा उतीर्ण करना जरूरी नहीं है। परन्तु वर्तमान में बार्ड परीक्षा अनिवार्य है।

धारा 31-34- बालकों के अधिकार का संरक्षण

धारा 35-38- प्रकीर्ण (अध्याय - 7 )

अनुसूची अनुसूची के रूप में एक ही अनुसूची बनायी गई इसमें विद्यालय के मान व मानक आते है।

RTE-2009 की मुख्य विशेषताएँ :- बच्चे को निः शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अवसर और अधिकार देता है।

1. विकलांग बच्चे भी मुख्यधारा की नियमित स्कूल से शिक्षा प्राप्त कर सकते है।

2. प्रत्येक बच्चे को उसके निवास क्षेत्र के एककिलोमीटर के भीतर प्राथमिक स्कूल और 3 किलोमीटर के भीतर माध्यमिक स्कूल उपलब्ध हो जाते है।

3. किसी भी बच्चे को मानसिक यातना या शारीरिक दण्ड नहीं दिया जायेगा । 4. स्कूलों में लड़के व लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था की जायेगी ।

5. इस अधिनियम के तहत शिकायत निवारण के लिए ग्राम स्तर पर पंचायत कलस्टर स्तर पर कलरअर संसाधन केन्द्र (सी.आर.सी.) तहसील स्तर पर तहसील पंचायम, जिला स्तर पर जिला प्राथमिक शिक्षा अधिकारी की व्यवस्था है।

6. प्रारम्भिक शिक्षा की गुणवता सुधारने का लक्ष्य है।

7. यह प्रावधान एक सामान्य स्कूल प्रणाली के विकास की नींव रखने की दिशा में प्रभावी कदम है। इससे सभी बच्चों को गुणवता पूर्ण शिक्षा दी जा सकेगी और इस प्रकार सामाजिक तथा आर्थिक रूप से वंचित वर्गों को अलग थलग करने में रोक लग सकेगी।

8. विधेयक में सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से प्रारम्भिक से माध्यमिक स्कूल तक की शिक्षा देने पर जोर दिया गया है और इस आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने से उनके भविष्य का आधार तैयार हो सकेगा।

9. किसी भी बच्चे को किसी भी कक्षा में फेल करके नहीं रोका जायेगा और 8 साल तक की शिक्षा पूरी करने तक किसी भी बच्चे को स्कूल से नहीं हटाया जायेगा ।

10. स्कूलों में शिक्षको और कक्षाओं की संख्याँ पर्याप्त मात्रा में रहेगी। हर 30 बच्चों पर एक शिक्षक हर शिक्षक के लिए एक कक्षा और प्रिंसिपल के लिए एक अलग कमरा उपलब्ध करवाया जाएगा।

11. बच्चे को स्कूल में दाखिला देते समय स्कूल या व्यक्ति किसी भी प्रकार कोई अनुदान नहीं मागेंगा।

RTE-2009 भारतीय शिक्षा का प्रभाव :- प्रावधान का भारतीय शिक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ा है जो निम्न प्रकार है:- 

1. भारत के 6 14 बर्ष आयु वर्ग के बीच आने वाले सभी बच्चों को मुफ्त एंव अनिवार्य शिक्षा मिलने लगी।

2. प्राथमिक शिक्षा पूर्ण होने से पहले रोका या निकाला नहीं जायेगा।

3. ऐसा बच्चा जिसकी उम्र 6 साल से ऊपर है जिसका किसी स्कूल में दाखिला नहीं है अथवा है तो भी उपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं कर पाया तो उसे उम्र के अनुसार कक्षा में प्रवेश दिया जाये।

4. प्रवेश के लिए उम्र का साक्ष्य प्राथमिक शिक्षा हेतु प्रवेश के लिए बच्चे के उम्र का निर्धारण जन्म प्रमाण पत्र के आधार पर किया जायेगा जन्म प्रमाण पत्र नहीं होने पर किसी बच्चे को प्रवेश लेने से वंचित नहीं करा जावें ।

5. प्राथमिक शिक्षा पूरी करने वाले छात्र अनुपात की सिफारिशें इसमें शामिल है।

6. एक निश्चित शिक्षक छात्र अनुपात की सिफारिशें इसमें शामिल है।

7. आर्थिक रूप से कमजोर सभी समुदाय के लिए सभी निजी स्कूलों में कक्षा 1 में दाखिला के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण होगा। 

8. शिक्षा की गुणवता में अनिवार्य एंव आवश्यक सुधार।

9. स्कूल का बुनियादी ढांचा 3 वर्षों के भीतर सुधारा जाये अन्यथा उसकी मान्यता रद्द कर दी जाये।

10. वितीय व्यवस्था के लिए राज्य सरकार व केन्द्र सरकार के बीच सांझा किया जायेगा |

RTE-2009 की आलोचना :- मुफ्त और अनिवार्य से जरूरी है समान शिक्षा प्रदान करना अच्छा होता है अगर सरकार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का बिल लाने पर जोर देने के बजाय समान्य स्कूल का बिल लाने पर जोर देने के बजाय सामान्य स्कूल का बिल लाने पर ध्यान केन्द्रित करती है अर्थात् सभी स्कूलों में एक ही पाठ्क्रम हों।

सरकार ये घोषण क्यों नही करती है कि देश का हर बच्चा एक ही तरह के स्कूल में जायेगा और पूरे देश में एक ही पाठ्यक्रम पढाया जाये।

मुफ्त एंव अनिवार्य शिक्षा के तहत 25 प्रतिशत सीटों पर समाज के कमजोर वर्गों के छात्रों को दाखिला मिलेगा यानि शिक्षा के जरिये गैर बराबरी का सपना देखा गया वो अभी भी पूरा नहीं हो पाया।

मुफ्त शिक्षा की बात महज एक धोखा है क्योंकि इसके लिए बजट के प्रावधान का जिक्र विधेयक में नहीं है।

- कानून का क्रियान्वयन कैसा होगा यह स्पष्ट नहीं है।

- इस विधेयक में लिखा है कि किसी बच्चे को काई भी फीस नहीं देनी पड़ेगी इस घुमावदा भाषा का शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर मनमाने ढंग से उपयोग किया जा रहा है।

    RTE-2009 आने के बाद प्रायः शिक्षा में काफी सुधार आया है भारत में साक्षर व्यक्तियों की संख्या बढी है अर्थात् भारत में साक्षरता दर बढी है। इस विधेयक से ही विद्यालय के संस्थानिक ढांचे में सुधार हुआ है यह विधेयक जनहित का विधेयक है जिसमें छात्र को शिक्षा उचित मूल्यों एवं अभिवृति एंव अभिप्रेरणा के आधार पर दी जाती रही है। यह विधेयक देश की साक्षरता दर बढ़ाने में नींव का पत्थर साबित हुआ है। इस प्रावधान के कारण ही निजी विद्यालयों के मनमाने ढंग से चलाये जाने पर नियंत्रण एंव नियमन लगा है। एवं देश की अर्थव्यवस्था में मदद मिली है। इस प्रावधान से गरीब वर्ग के विद्यार्थियों को पोष्टिक आहार एंव शुद्ध पेयजल की सुविधा मिली यह एक ऐसा प्रावधान है जिसने देश को विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्र बनाने में महत्पूर्ण है।

RTE-2009 के मुख्य प्रावधान :-

1. 6-14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त संविधा ( निः शुल्क ) शिक्षा उपलब्ध कराई जाये । 

2. निजी स्कूल को 6 14 वर्ष के 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को निःशुल्क पढ़ना। इन बच्चों से फीस वसूलने पर 10 गुना जुर्माना होगा शर्त नहीं मानने पर मान्यता रद्द हो सकती है और मान्यता निरस्त होने पर स्कूल चलाया तो 1 लाख और प्रतिदिन 10,000 का जुर्माना लगाया जायेगा ।

3. विकलांग बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा के लिए उम्र बढ़ाकर 18 वर्ष रखी गई है। 

4. बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य तथा केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी होगी ।

5. इस विधेयक में 10 ( अंह) मुख्य लक्ष्यों को पूरा करने की बात कही है, इसमें मुफ्त एंव अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने का दायित्व केन्द्र राज्य सरकार पर होने स्कूल पाठ्यक्रम देश के संविधान की दिशा निर्देश के अनुरूप और सामाजिक जिम्मेदारी पर केन्द्रित होने और एडमिशन प्रक्रिया में लालफिताशाही कम करना शामिल है।

6. प्रवेश के समय कई स्कूल कॉम्पिटेशन फीस की मांग करते है और बच्चों एंव माता-पिता को इन्टरवियों की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। एडमिशन की इस प्रक्रिया को बदलने का वायदा भी इस विधेयक में है। बच्चों के स्केनिंग एवं अभिभावकों की परीक्षा लेने पर 25,000 का जुर्माना तथा दोहराने पर 50,000 का जुर्माना |

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Dr. D R BHATNAGAR  

रविवार, 5 फ़रवरी 2023

नोबेल पुरस्कार प्राप्त भारतीय वैज्ञानिक - चन्द्रशेखर वेंकटरमन (CHANDRASEKHARA VENKATA RAMAN)

 चन्द्रशेखर वेंकटरमन

 CHANDRASEKHARA VENKATA RAMAN 


    चन्द्रशेखर वेंकटरमन एक ऐसा नाम है, जिससे विश्वभर के लोग परिचित है। इसका प्रमुख कारण उनका वह प्रकाश संबंधी अनुसंधान है जिसके कारण उन्हें भारत ही नही, समूचे एशियाभर में नोबेल पुस्कार प्राप्त हुआ। इनको सी.वी. रमन के नाम से भी जाना जाता है। इनके अनुसंधान प्रकाश संबंधी होते थें। ये कही भी जाते थे जल की लहरों व प्रकाश की गति पर ध्यान रखते थें। 

जन्म- चन्द्रशेखर वेकंटरमन का जन्म तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली नामक स्थान पर नवम्बर, 1888 में हुआ था। 

पारावारिक स्थिति  शैक्षिक पृष्ठभूमि - रमन की रूचि आरम्भ से ही विज्ञान में थी। उनका प्रिय विषय भौतिक विज्ञान था। वे काॅलेज की पढ़ाई के दिनों से ही घर पर वैज्ञानिक अनुसंधान करते रहते थे। रमन प्रारम्भ से ही अपनी कक्षा में प्रथम आते थे। जब उनकी आयु 17 वर्ष की थी और वे एम.ए. के छात्र थे, तो उन्होंने भौतिक विज्ञान से संबंधित एक निबन्ध लिखा। वह उन्होंने अध्यापक जोन्स को दिखाया ताकि वे अपनी सम्मति दे और उसमें सुधार के लिए सुझाव दे। परन्तु आश्चर्य की बात कि वह निबन्ध जोन्स की समझ के बाहर था। बहुत दिनों तक प्रतीक्षा करने के बाद वह लेख स्वयं लंदन की एक सुप्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘फिलासफिसल मैगजीन‘ में छपने के लिए भेज दिया। जब वह लेख ज्यों का त्यों बिना किसी संशोधन के छपा तो मि. जोन्स तो क्या अन्य सभी अध्यापक और प्रिंसीपल आश्चर्यचकित रह गए। इसके बाद उन्होंने अन्य पत्रिका में कुछ दुसरे लेख भी भेजे। इसका लाभ यह हुआ कि वे छोटी-सी आयु में और वह भी विद्यार्थी काल में ही महत्वपूर्ण वैज्ञानिकों के सम्पर्क में आ गए। 

शिक्षा के बाद इग्लैण्ड जाकर किसी प्रतियोगिता में बैठना चाहते थे, क्योंकि बड़ी और अच्छी नौकरियाँ पाने के लिए प्रतियोगिताओं में बैठना आवश्यक था और प्रतियोगिताएँ इग्लैण्ड जाने के मार्ग में बाधा डाल दी। केवल फाइनेन्स विभाग की प्रतियोगिता परीक्षा ही भारत में होती थी। सो, विज्ञान के विद्यार्थी को फाइनेन्स की परीक्षा में विवश होकर बैठना पड़ा। यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि जब उन्हें फाइनेंस प्रति विवश होकर बैठना पड़ा। यहां यह बता देना आवश्यक है कि जब इन्हें फाइनेंस प्रतियोगिता में बैठना था तो केवल एक ही महिने का समय तैयारी के लिए बचा था। और उसके सभी विषय नए थे इसके लिए उन्हें साहित्य, इतिहास, राजनीति-विज्ञान और संस्कृत आदि में पांरगत होना आवश्यक था। इसमें रमन के अदम्य आत्मविश्वास ने ही सफलता दिलवायी और वे अन्य परीक्षाओं के समान इसमें भी सर्वप्रथम आए। सो वे भारत सरकार के फाइनेंस विभाग में डिप्टी डायरेक्टर जनरल के पद पर चुन लिए गए और उनकी नियुक्ति पहले-पहल कलकत्ता में हुई। 

    वैज्ञानिक खोजे एवं सिद्धान्त व अनुसंधान - रमन का प्रकाश संबंधी अनुसंधान है। सभी व्यक्ति नदियों, नालों, तालाबों, पोरवरों और समुद्रों मे लहरें उठते देखते है। लहरें दूर-दूर तक उठती चली जाती है, पानी आगे फैलता जाता है। वैज्ञानिक सोचता है कि क्या प्रकाश भी पानी की लहरों के समान फैलता है? पानी और प्रकाश की लहरों में अन्तर क्या है? पानी में लहरें उठने का कारण वायु है। जहाँ वायु का प्रवेश होता है, वहीं लहरें फैलती है। परन्तु प्रकाश की विशेषता यह है कि वह वायुरहित स्थान पर भी फैलता है। 

प्रकाश के सम्बन्ध में अन्य अनेक वैज्ञानिकों ने अनुसंधान किए है परन्तु सी.वी. ने यह सिद्ध किया कि तरल और पारदर्शी पदार्थों में से छितराने पर प्रकाश का रंग बदल जाता है। उन्होंने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन तो कर दिया परन्तु इसे सिद्ध करके दिखाने में उन्हें तीन-चार वर्ष लग गए। 

रमन 1921 में जब पहली बार विदेश गए तो उनका जहाज भूमध्य सागर से गुजर रहा था। वे जहाज के डेक पर खडे़ यों ही पानी की लहरें देख रहे थे। वे एकाएक गंम्भीर हो गए। उन्होंने देखा कि भूमध्य सागर का पानी गहरे नीले रंग का है, जबकि बंगाल की खाड़ी का पानी काला-सा मैलापन लिए हुए सफेदी माइल है।

रमन ने प्रकाश के छितराने के सिद्धान्त का प्रतिपादन 1925 में किया था और 1930 में उन्हें प्रकाश के इस सिद्धान्त पर जिसे हम ‘रामन प्रभाव‘ कहते है, नोबेल पुरूस्कार प्राप्त हुआ। उनमें इतना जबरदस्त आत्मविश्वास था कि 1925 में ही कह दिया था कि मेरे इस अनुसंधान पर पाँच वर्ष पश्चात् नोबेल पुरूस्कार प्राप्त होगा - और हुआ भी ऐसा ही। नोबेल पुस्कार की घोषणा होते ही उनकी गणना विश्व के महानतम वैज्ञानिकों में होने लगी और उन्हें मानद उपाधियों और सम्मान से लाद दिया गया। उन्हें लेनिन शांति पुस्कार भी दिया गया। 

डाॅ. रमन ने रंगो के संबंध में भी अनुसंधान किए है। उन्होंने इस प्रश्न को तीन भागों में बांटा - भौतिक, शारीरिक और मानव मस्तिष्क विज्ञान। रंगो की पहचान आँख की रैटिना करती है। उन्होंने रैटिना के विभिन्न भागों और उनके काम करने के संबंध में अनेक अनुसंधान किए और महत्वपूर्ण नवीन जानकारी दी। 

रमन ने प्रकाश और रंगो के अतिरिक्त ध्वनि के संबंध में भी अनेक अनुसंधान किए। इसके लिए उन्होंने अनेक वाद्य यंत्रो की ध्वनियों का अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने चुम्बकीय शक्ति, एक्सरे और समुद्री जल आदि के संबंध में भी अनुसंधानों में समय लगाया। 

उपलब्धियाँ -रमन ने अपने जीवन में अनेक उपलब्धियाँ हासिल की। उन्होंने कई महत्वपूर्ण नौकरियां छोड़ कर विज्ञान की खोज में लगे। रमन की रूचि विज्ञान में थी और वे अपना जीवन भी विज्ञान के लिए समर्पित समझते थे। परन्तु उन्हें काम करना पड़ता था फाइंनेस विभाग में। परन्तु जहाँ चाह होती है, वहाँ राह निकल ही आती है। उन्हें भी एक दिन कलकत्ता की भारतीय विज्ञान परिषद का द्वार दिखाई दिया, जहाँ सर आशुतोष मुखर्जी और सर गुरूदास बनर्जी की देख-रेख में काम होता था। रमन अपने कार्यालय के बाद वहाँ की प्रयोगशाला में आकर देर रात  तक अनुसंधान और परीक्षण करने लगे। परन्तु उनका यह सिलसिला अधिक दिन नहीं चल पाया और उनका तबादला रंगून कर दिया गया। वहाँ से उन्हें नागपुर जाना पड़ा और कुछ काल बाद पदोन्नत होकर वे अकाउंटेट जनरल बने और उन्हें कलकत्ता भेज दिया गया। यहाँ उन्होंने विज्ञान सम्बन्धी पुस्तके लिखीं और अनुसंधान किए। 

सर आशुतोष मुखर्जी, सर तारकनाथ पालित और डाॅ. रासबिहारी घोष के प्रयत्न से जब कलकत्ता में साइंस काॅलेज की स्थापना हुई तो रमन महोदय ने इतनी बड़ी सरकारी नौकरी छोड़कर काॅलेज का भौतिक विज्ञान संभाल लिया। विज्ञान के प्रति उन्होंने यह उनका काफी बड़ा और सराहनीय त्याग था। रमन ने विज्ञान संबंधी अपने कार्य की जानकारी देने के लिए अनेक बार विदेश जाना पड़ा। उस समय के विश्व विख्यात वैज्ञानिक अर्नेस्ट रदरफोर्ड ने डाॅ. रामन के संबंध में कहा था - ‘‘डाॅ. रमन ने केवल महत्वपूर्ण अन्वेषण ही नहीं किए, वरन् अपने प्रयासों से कलकत्ता विश्वविद्यालय में विज्ञान की खोज के लिए एक प्रगतिशील और उपयोगी संस्था की स्थापना तथा उसका विकास भी किया है।‘‘


पुस्कार -

    डाॅ. रमन ने अपने जीवन काल में अनेक उपाधियाँ व पुस्कार प्राप्त किए थे। सन् 1930 में प्रकाश के संबंध में उन्हें नोबेल पुस्कार प्राप्त हुआ। नोबेल पुस्कार की घोषणा होते ही उनकी गणना विश्व के महानतम वैज्ञानिकों में होने लगी और उन्हें मानद उपाधियों और सम्मान से लाद दिया गया। उन्हें लेनिन शांति पुस्कार भी दिया गया। भारत सरकार ने विज्ञान संबंधी उनके महान् कार्यो को ध्यान में रख 1954 में उन्हें ‘भारत रत्न‘ के सम्मान से गौरवान्वित किया। 

डाॅ. रमन के अपने वैज्ञानिक कार्यो के कारण लंदन की रायल सोसाइटी ही नहीं, अनेक देशों की विज्ञान-संस्थाओं ने उन्हें अपना सम्मानित सदस्य बनाया। नोबेल पुरूस्कार प्राप्त करने के बाद रामन केवल दो वर्ष तक ही देश की सुप्रसिद्ध संस्था ‘इडियंन इंस्टीट्युट ऑफ सांइस‘ के संचालक पद पर काम करते रहें। 

1943 में उन्होंने रमन इन्टीट्युट की स्थापना की और अपने कार्यो, लेखों, भाषणों और आविष्कारों से इस संस्था को इतना समद्ध कर दिया कि आज यह देश-विदेश में प्रसिद्ध विज्ञान संस्था है। 

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Dr. D R BHATNAGAR 

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