सोमवार, 14 नवंबर 2022

स्वामी विवेकानन्द (Swami Vivekanand)

 स्वामी विवेकानन्द

जन्म -  1963 (बंगाली परिवार)

शिक्षा - स्नातक, पिताजी के निधन के कारण घर की जिम्मेदारी 

गुरू - स्वामी रामकृष्ण परमहंस

मिशन - रामकृष्ण मिशन

शिक्षा का उद्देश्य -परमात्मा की प्राप्ति

परमात्मा की प्राप्ति ज्ञान, भक्ति एवं कर्म से भी हो सकती है।

इनके अनुसार - मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यकित ही शिक्षा है। 

विवेकानन्द - ‘‘हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिसके द्वारा चारित्र गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और मनुष्य स्वावलम्बी बने।

स्वामी विवेकानन्द वेदान्त दर्शन के अनुयायी तथा उसके प्रखर उद्घोषक एवं प्रचारक थे।


 विवेकानन्द के अनुसार शैक्षिक दर्शन - 

1. शिक्षा के उद्देश्य  (Aims of Education) शारीरिक विकास - शारीरिक दुर्बलता ही व्यक्ति की पूर्णता में सबसे बड़ी बाधा है। सर्वप्रथम हमारे नवयुवकों को सबल मिलना चाहिए। यदि हमें अपने अन्दर मानव शक्ति का अनुभव कर सकते है तो उपनिषदों की आत्मा की महत्ता को अधिक अच्छी प्रकार समझ सकते है।

 () जीवन-संघर्ष के लिए तैयारी - शिक्षा का उद्देश्य बालकों को जीवन-संघर्ष के लिए तैयार करना है। जो व्यक्ति प्रकृति से संघर्ष कर सकता है उसी में चैतन्य दिखाई देता है। जहाँ चेष्टा या पुरूषार्थ है, वहीं जीवन का चिह्न तथा चेतना का प्रकाश है।

() राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीय की भवना का विकास - भारत के प्रत्येक बालक में अपने देश के प्रति गौरव का भाव होना चाहिए और साथ ही मानवता की एकता में विश्वास भी विकसित होना चाहिए। मानव निर्माण की प्रक्रिया पहले राष्ट्रीयता से आरम्भ होती है तथा शनैः-शनैः सम्पूर्ण विश्व उसमे समाहित हो जाता है।

() चरित्र विकास - विवेकानन्द ने भी चरित्र निर्माण को शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना है। चरित्र का अर्थ है व्यक्तित्व की समस्त शक्तियों का समन्वय। इसके लिए विवेकानन्द ने शिक्षार्थी द्वारा ब्रह्मचर्य के पालन पर बल दिया है। 

अध्यापक-शिष्य सम्बनध (Teacher – Pupil Relation)

    विवेकानन्द  अनुसार ‘‘मैं गुरू परम्परा को मानने वाला हूँ किन्तु प्रत्येक शिक्षक गुरू नहीं होता, गुरू-शिष्य का सम्बन्ध आध्यात्मिक और स्वयं स्फुरित होता है।’’

    गुरू को त्याग एवं तपस्या की प्रतिमूर्ति बन शिष्य के समक्ष उपस्थित होना चाहिए। तभी वह इस गौरवशाली पद का अधिकारी हो सकता है।


     विवेकानन्द  शिक्षक को बालक का मित्र, पथ-प्रदर्शक एवं परामर्शदाता मानते थे। शिक्षक को मैत्रीपूर्ण ढंग से बालक के मनोभावों का अध्ययन करना चाहिए और बालक की समस्याओं के हल हेतु पथ प्रदर्शक के रूप में परामर्श देना चाहिए। शिक्षक के बालक की अन्तर्निहित क्षमताओं के लिए सदैव जागरूक रहना चाहिए और विकास का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।

    विवेकानन्द के अनुसार शिक्षक वेतन के लिए कार्य नही करता यदि वह वेतन के लिए कार्य करता है तो वह अध्यापन का कार्य नहीं कर सकता है। अध्यापन का कार्य समर्पण की भावना पर आधारित होता है, इस प्रकार वे प्राचीन गुरू परम्परा के पोषक थे।

(ख) जीवन-संघर्ष के लिए तैयारी - शिक्षा का दूसरा उद्देश्य बालकों को जीवन-संघर्ष के लिए तैयार करना है। जो व्यक्ति प्रकृति से संघर्ष कर सकता है उसी में चैतन्य दिखाई देता है। जहाँ चेष्टा या पुरूषार्थ है, वहीं जीवन का चिह्न तथा चेतना का प्रकाश है।

(ग) राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीय की भवना का विकास - भारत के प्रत्येक बालक में अपने देश के प्रति गौरव का भाव होना चाहिए और साथ ही मानवता की एकता में विश्वास भी विकसित होना चाहिए। मानव निर्माण की प्रक्रिया पहले राष्ट्रीयता से आरम्भ होती है तथा शनैः-शनैः सम्पूर्ण विश्व उसमे समाहित हो जाता है।

(घ) चरित्र विकास - विवेकानन्द ने भी चरित्र निर्माण को शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना है। चरित्र का अर्थ है व्यक्तित्व की समस्त शक्तियों का समन्वय। इसके लिए विवेकानन्द ने शिक्षार्थी द्वारा ब्रह्मचर्य के पालन पर बल दिया है।

(2) पाठ्यचर्या¼Curriculum½  - शिक्षा का आधार अव्याव्य को माना है। वे कहते है कि धर्म पाठ्यक्रम की आत्मा है क्योंकि अन्य विषय मन तथा बुद्धि का परिष्कार करते है, परन्तु धर्म हृदय को सम्मुक्त करता है। हृदय का परिष्कार करना आवश्यक है क्योंकि ईश्वर हृदय के माध्यम से ही हमें संदेश देता है। विवेकानन्द ने आध्यात्मिक विकास को जीवन का परम लक्ष्य मानते हुए भी लौकिक विकास की उपेक्षा नहीं की है। अतः उन्होंने दोनों पक्षों के विकास हेतु पाठ्यक्रम का पाठ्यचर्या में विषय निर्धारित किए है।

    लौकिक विकास हेतु उन्होंने पाठ्यक्रम में भाषा, इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, गणित, विज्ञान, Home Science, Psychology, Agriculture, Technology  व उद्योग कौशल संबंधी विषय तथा खेलकूद, व्यायाम, समाजसेवा, राष्ट्रसेवा एवं मानव सेवा सम्बन्धी क्रियाकलापों को स्थान दिया। आध्यात्मिक विकास हेतु उन्होंने साहित्य, दर्शन, धर्मशास्त्र व नीतिशास्त्र विषयों के साथ भजन, कीर्तन, सत्संग एवं ध्यान संबंधी क्रियाकलापों को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाया। इस पाठ्यचर्या की दृष्टि से विवेकानन्द का प्रयास आधुनिक था।

(3) शिक्षण विधियाँ(Methods of Teaching)  - विवेकानन्द -मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता का अभिव्यक्ति ही शिक्षा है।’’ इससे ही उन्होंने विज्ञान हेतु आधुनिक शिक्षण विधियों प्रत्यक्ष अनुकरण, व्याख्यान, निर्देशन, विचार-विमर्श और प्रयोग विधियों का समर्थन किया है, किन्तु आध्यात्मिक ज्ञान हेतु अध्ययन मनन, विमर्श और प्रयोग विधियों का समर्थन किया। 

ध्यान और योग (एकाग्रता) विधि पर विशेष ध्यान दिया।

आध्यात्मिक तथा धर्म पद्धतियों की विशेषताएँ - निम्नलिखित-

  1. चित की वृतियों को योग (एकाग्रता) द्वारा 
  2. मन को केन्द्रीकरण विधि द्वारा विकसित करना।
  3. ज्ञान को व्याख्यान, तर्क, विचार-विमर्श, स्वानुभव तथा रचनात्मक कार्यो व उपदेशों द्वारा अर्जित करना।
  4. शिक्षक के गुणों तथा चरित्र को बुद्धि द्वारा अनुकरण करना।
  5. बालक को व्यक्तिगत निर्देशन तथा परामर्श विधि के द्वारा उचित मार्ग की ओर अग्रसर करना।

(4) शिक्षक शिक्षार्थी सम्बन्ध - प्रत्येक व्यक्ति अपना स्वयं शिक्षक है बाह्य शिक्षक तो केवल ऐसे सुझाव प्रस्तुत करता है जिनसे आन्तरिक शिक्षक (आत्मा) को कार्य करने और समझने के लिए चेतना मिलती है। जब तक शिक्षार्थी इन्द्रिय निग्रह नहीं करता है, उसमें सीखने के लिए प्रबल इच्छा उत्पन्न नहीं होती और वह गुरू में श्रृद्ध रखकर सत्य को जानने का प्रयत्न नहीं करता तब तक न वह भौतिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है न आध्यात्मिक। गुरू शिष्य का सम्बन्ध केवल लौकिक ही नहीं होना चाहिए, अपितु उन्हें एक-दूसरे के दिव्य स्वरूप को भी देखना चाहिए।

विवेकानन्द ने शिक्षक को परिभाषित - ‘‘शिक्षक एक दार्शनिक, मित्र तथा पथ प्रदर्शक है, जो बालक को अपने ढंग से अग्रसर होने के लिए सहायता प्रदान करता है।

Teacher is a philosopher, friend and guide helping the child to go forward in his own way.

    गुरू शिष्य की उपर्युक्त विशेषताओं के सन्दर्भ में ही विवेकानन्द गुरू गृह प्रणाली (गुरूकुल पद्धति) के समर्थक थे।




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                Dr. D R BHATNAGAR  

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