बुधवार, 28 अप्रैल 2021

ज्ञान के निर्माण में समावेशित घटक या तत्त्व

ज्ञान के निर्माण में समावेशित घटक या तत्त्व
Factors involved in construction of knowledge



    सामान्य रूप से बालक अपने जीवन में दो प्रकार की ज्ञानात्मक व्यवस्था से परिचित होता है। उसको विद्यालय की व्यवस्था से तथा स्वयं के अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। अनेक अवसरों पर दोनों प्रकार के ज्ञान में सामंजस्य उपस्थित हो जाता है; जैसे- आग से दूर रहना चाहिये। यह ज्ञान छात्र को विद्यालय में बताया गया। इसके उपरान्त बालक ने जब आग को छूने। अतः विद्यालय के ज्ञान तथा का प्रयास किया तो उसे पता चला कि वह उससे जल सकता अनुभवजन्य ज्ञान में एकता सिद्ध हो गयी। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि बालक का विद्यालयी ज्ञान उसके लिये तब तक सामान्य तथ्य था जब तक कि उसने इसे अनुभव नहीं किया था परन्तु जैसे ही बालक ने इसकी सत्यता एवं प्रभावशीलता को अपने अनुभव के द्वारा सत्य सिद्ध पाया तो यह ज्ञान स्थायित्वता से परिपूर्ण हो गया तथा बालक द्वारा आत्मसात् किया गया। इस प्रकार विद्यालयी ज्ञान एवं अनुभवजन्य ज्ञान दोनों ही महत्त्व होते हैं।

1. विद्यालयी ज्ञान (School based knowledge) - विद्यालयी ज्ञान का आशय तथ्यात्मक ज्ञान की व्यवस्था से जिसमें बालक को औपचारिक एवं क्रमबद्ध रूप में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के माध्यम से ज्ञान सिखाया जाता है । विद्यालयी व्यवस्था में ज्ञान एक निश्चित समय • सीमा के अन्तर्गत एक निश्चित ज्ञानात्मक व्यवस्था में परिपूर्ण किया जाता है । विद्यालयी व्यवस्था पूर्ण रूप से औपचारिक ज्ञान का केन्द्र है जिसमें विभिन्न प्रकार के प्रयासों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है । विद्यालय ज्ञान की प्रक्रिया एवं व्यवस्था को निम्नलिखित रूप में समझाया जा सकता है- 

(1) तथ्यात्मक ज्ञान (Factorial knowledge) - विद्यालगी जान प्रमुख रूप से तथ्यात्मक ज्ञान पर आधारित होता है । इसमें विभिन्न प्रकार के विषयों का तथ्यात्मक ज्ञान प्रदान किया जाता है । अनेक अवसरों पर प्रयोग प्रदर्शन के माध्यम से विद्यालयी ज्ञान प्रदान किया जाता है । इस प्रकार का ज्ञान विज्ञान आदि विषयों के क्षेत्र में सम्पन्न होता है ; जैसे गैस के बारे में तथ्यात्मक ज्ञान भी प्रदान किया जाता है तथा उसको प्रयोगशाला में बनाकर भी सिद्ध किया जा सकता है ।

(2) क्रमबद्ध ज्ञान (Systematic knowledge)- क्रमबद्ध रूप में ज्ञान प्रदान करना विद्यालयी ज्ञान की प्रमुख विशेषता है । विद्यालयी ज्ञान में एक निश्चित समय तालिका के अनुसार ज्ञान प्रदान किया जाता है जिसमें विद्यालय में महत्त्वपूर्ण विषयों के अध्ययन को स्थान प्रदान किया जाता है जो कि बालक के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक है ; जैसे- प्राथमिक स्तर पर हिन्दी , गणित एवं विज्ञान के ज्ञान को प्राथमिकता प्रदान की जाती है तथा वर्तमान में पर्यावरणीय अध्ययन को भी महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में स्वीकार किया जाता है । 

(3) औपचारिक व्यवस्था (Formal arrangement)- विद्यालयी ज्ञान के अन्तर्गत सभी व्यवस्थाएँ पहले से ही निर्धारित एवं औपचारिक होती हैं । इस औपचारिक व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक कक्षा के स्तर के अनुसार बालकों को ज्ञान प्रदान करने की विधियों का निश्चय किया जाता है । विद्यालयी ज्ञान में बालकों के शारीरिक एवं मानसिक विकास को ध्यान में रखकर सम्पूर्ण शैक्षिक व्यवस्था का निर्धारण किया जाता है । इसमें बालकों के स्तर का ध्यान रखा जाता है । 

(4) सैद्धान्तिक ज्ञान (Theoritical knowledge) - विद्यालयी व्यवस्था में छात्रों को सैद्धान्तिक ज्ञान को प्रदान करने की अधिकता पायी जाती है। वर्तमान समय में सरकार एवं शिक्षाशास्त्रियों द्वारा व्यावहारिक ज्ञान पर अधिक बल दिया जा रहा है परन्तु भारतीय विद्यालयों में सभी सुविधाओं के उपलब्ध न होने के कारण सैद्धान्तिक ज्ञान की अधिकता पायी जाती है तथा व्यावहारिक ज्ञान की कमी पायी जाती है। 

(5) अमूर्त ज्ञान (Virtual knowledge)- विद्यालयी व्यवस्था में अमूर्त विषयों के ज्ञान की अधिकता पायी जाती है। वर्तमान समय में अमूर्त ज्ञान को मूर्त बनाने का प्रयास भी किया जा रहा है; जैसे- वर्णाक्षरों के ज्ञान को चित्रों के माध्यम से पढ़ाया जाता है जिससे बालक रूचि पूर्ण ढंग से ज्ञान प्राप्त कर सकें। अमूर्त ज्ञान को प्राप्त करने में प्रतिभाशाली बालक तो सक्षम हो जाते हैं। परन्तु सामान्य बुद्धि लब्धि के बालक इसको प्राप्त करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। 

(6) निश्चित विधियाँ (Fixed methods)- विद्यालयी ज्ञान में ज्ञान प्रदान करने की विधियाँ भी निश्चित होती हैं जिनके अनुसार ही बालकों को ज्ञान प्राप्त करना होता है तथा शिक्षक को ज्ञान प्रदान करना होता है। इन विधियों का प्रयोग प्रभावी भी हो सकता है तथा अनेक स्थितियों में प्रभावहीन भी हो सकता है। वर्तमान समय में अनेक वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करके ज्ञान प्रदान करने की प्रक्रिया को प्रभावी बनाया जाता है जैसे- दल शिक्षण प्रायोजना विधि, समस्या समाधान विधि तथा भ्रमण विधि आदि । 

(7) सीमित विषय (Limited subjects)- विद्यालयी ज्ञानात्मक व्यवस्था में विषयों का क्षेत्र भी सीमित होता है। सीमित विषय भी छात्रों की योग्यता एवं स्तर के अनुसार निश्चित किये जाते होता है। इन विषयों में छात्रों के सर्वांगीण विकास के उद्देश्य को ध्यान में रखा जाता है। 

(8) सीमित क्षेत्र (Limited field)- विद्यालयी ज्ञान के अन्तर्गत ज्ञान का क्षेत्र सीमित होता है। उसको आवश्यकता के अनुसार एक निश्चित समिति द्वारा ही विस्तृत रूप प्रदान किया जाता है। दूसरे शब्दों में विद्यालयी ज्ञान का परिदृश्य एक निश्चित क्षेत्र के आसपास ही घूमता है क्योंकि ये सामान्य बालकों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है। विद्यालयी ज्ञानात्मक व्यवस्था को इस क्षेत्र से बाहर जाने का प्रयास नहीं होता। 

(9) निश्चित मूल्यांकन (Fixed evaluation)- सीमित मूल्यांकन प्रक्रिया के अन्तर्गत विद्यालय में परीक्षा की व्यवस्था में समानता एवं एकता पायी जाती है। इस मूल्यांकन प्रक्रिया में किसी विशेष छात्र के लिये कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया जा सकता। सामान्य रूप से विद्यालयों में ज्ञान के मूल्यांकन की प्रक्रिया भी सामान्य रूप से एक प्रकार की पायी जाती है उसमें विशेष कारणों से ही परिवर्तन किया जाता है। 

(10) रुचिपूर्ण शिक्षण (Interest teaching)- रुचिपूर्ण शिक्षण व्यवस्था विद्यालयी ज्ञान का प्रमुख अंग है। विद्यालयी व्यवस्था में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी एवं रुचिपूर्ण बनाने के लिये शिक्षकों द्वारा उचित प्रयास किये जाते हैं। इसके लिये शिक्षण अधिगम सामग्री का प्रयोग व्यापक रूप से किया जाता है तथा छात्रों की सहभागिता की प्रक्रिया को निश्चित रूप प्रदान किया जाता है। रुचिपूर्ण शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत छात्रों के मानसिक एवं योग्यता के स्तर के साथ-साथ रुचियों का भी ध्यान रखा जाता है। 


2. अनुभवजन्य ज्ञान ( Experience based knowledge ) – अनुभवजन्य ज्ञान , ज्ञान प्राप्ति की एक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है जिसमें छात्र अपने स्वप्रयासों से तथा शिक्षक के सहयोग से ज्ञान प्राप्त करता है। अनुभवजन्य ज्ञान प्राप्त करने में बालक स्वतन्त्र होता है उस पर किसी प्रकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता; जैसे- बालक आम खाने की अपेक्षा दूध पीकर दूध के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहता है तो उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार अनुभवजन्य ज्ञान में ज्ञान प्राप्त करना पूर्ण स्वतन्त्र होता है उसको किसी प्रकार के विशेष औपचारिक नियमों में नहीं बाँधा जा सकता। अनुभवजन्य ज्ञान को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जाता है-

(1) पारिवारिक एवं सामाजिक ज्ञान (Familial and social knowledge)- अनुभवजन्य ज्ञान के अन्तर्गत बालक द्वारा विद्यालय से बाहर प्राप्त ज्ञान भी सम्मिलित किया जा सकता है। इसमें बालक अपने परिवार में जो अनुभव करता है तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का अवलोकन करता है उस ज्ञान को सम्मिलित किया जाता है। अतः परिवार एवं समाज के विभिन्न प्रकार के अनुभव अनुभवजन्य ज्ञान की श्रेणी में आते हैं। इस ज्ञान का क्षेत्र विद्यालयी भी इसमें समाहित किया जा सकता है। 

(2) परिचयात्मक ज्ञान की अधिकता (More identified knowledge)- प्रत्येक वस्तु से ज्ञाता का प्रत्यक्ष परिचय होता है, जैसे- एक बालक गाय को देखता है तो उसके अनुभवजन्य ज्ञान में परिचयात्मक ज्ञान की अधिकता होती है क्योंकि इस ज्ञान की प्रक्रिया में रंगरूप एवं आकार को आँखों से देखता है। अपने हाथों से उसको छूकर अनुभव करता है। उसके दूध को पीकर अनुभव करता है कि उसका स्वाद कैसा है? इस प्रकार अनुभवजन्य ज्ञान में परिचयात्मक ज्ञान की अधिकता होती है। 

(3) क्रमबद्धता का अभाव (Lack of system) - अनुभवजन्य ज्ञान में क्रमबद्धता का अभाव पाया जाता है। इस ज्ञान के लिये कोई निश्चित समय तालिका या किसी निश्चित व्यवस्था का सृजन नहीं होता। इस ज्ञान की प्राप्ति के सन्दर्भ में ज्ञाता की प्रमुख भूमिका होती है। ज्ञाता अपनी इच्छा के अनुसार भिन्न- भिन्न रुचियों के आधार पर ज्ञान प्राप्त करता है। इसमें ज्ञाता ज्ञान प्राप्त करने में पूर्ण स्वतन्त्र होता है। 

(4) अमूर्त ज्ञान की अधिकता (More trial knowledge)- अमूर्त ज्ञान को प्राप्त करने में अनुभवजन्य ज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह ज्ञान सामान्य रूप से मूर्त वस्तुओं से ही सम्बन्धित होता है। इसमें मूर्त वस्तु के सन्दर्भ में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अनुभव किया जाता है; जैसे- विभिन्न प्रकार की उपयोगी वस्तुओं के सन्दर्भ में प्राप्त ज्ञान अनुभवजन्य की श्रेणी में ही आता है। 

(5) व्यावहारिकता की अधिकता (More practicability)- अनुभवजन्य ज्ञान में व्यावहारिकता की अधिकता पायी जाती है। इसमें सैद्धान्तिकता का अभाव पाया जाता है। अनुभवजन्य ज्ञान का सम्बन्ध व्यावहारिक क्षेत्र से ही पाया जाता है; जैसे- योग के पश्चात् व्यक्ति का शारीरिक थकान से मुक्ति का अनुभव, गर्मी में छाया एवं ठण्डे जल का अनुभव आदि। इस प्रकार अनुभवजन्य ज्ञान में मूर्त वस्तुओं से ज्ञाता का सम्पर्क होता है। 

(6) व्यापक क्षेत्र (Broad field)- अनुभवजन्य ज्ञान का कोई निश्चित पाठ्यक्रम नहीं होता और न ही इसकी कोई सीमा होती है। इस ज्ञान म वस्तु का सम्बन्ध ज्ञाता से होता है तथा ज्ञाता जिन-जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है उसके ज्ञान में वृद्धि होती है। इस प्रकार वह अनेक वस्तुओं के सम्पर्क में आता है तथा अपने अनुभवजन्य ज्ञान में वृद्धि करता है। 

(7) स्वमूल्यांकन (Self-evaluation)- अनुभवजन्य ज्ञान का मूल्यांकन भी स्वयं छात्र द्वारा अर्थात् ज्ञाता द्वारा किया जाता है। प्रत्येक छात्र जो भी ज्ञान वस्तु के सन्दर्भ में प्राप्त करता है वह उसे सत्य एवं वैध मानकर स्वयं ही उसका मूल्यांकन करता है। अर्थात् जिस वस्तु के सन्दर्भ में ज्ञाता जो ज्ञान का अनुभव करता है वही उसकी वैधता एवं विश्वसनीयता को प्रमाणित करता है। 

(8) स्वअधिगम प्रक्रिया (Self learning process)- इस प्रकार के ज्ञान में शिक्षक द्वारा किसी प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता नहीं होती । इसमें ज्ञान प्राप्त करने वाला स्वयं इन्द्रियों की सहायता से अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ, एक बालक अपने घर में पालतू कुत्ते को देखता है तो वह उसकी विशेषताओं एवं गतिविधियों का अनुभव स्वयं करता है तथा उसके सन्दर्भ में अवधारणा का निर्माण करता है। इस प्रकार अनुभवजन्य ज्ञान में स्व- अधिगम प्रक्रिया सम्पन्न होती है। 

(9) वैधता का समावेश (Inclusion of validity)- अनुभवजन्य ज्ञान में वैधता का पूर्ण प्रभाव पाया जाता है क्योंकि ज्ञाता द्वारा इसको स्वयं प्राप्त किया जाता है इसलिये ज्ञाता इस ज्ञान की वैधता पर कोई सन्देह नहीं करता। उदाहरणार्थ, जब बालक अपने घर में देखता है कि मेज हरे रंग की है तो इस प्राप्त ज्ञान को सदैव वह वैध ज्ञान के रूप में स्वीकार करेगा क्योंकि उसने मेज के हरे रंग को अपनी आँखों से देखा है।

 (10) विश्वसनीयता का समावेश (Inclusion of reliability)- अनुभवजन्य ज्ञान में विश्वसनीयता का समावेश होता है क्योंकि अन्य किसी के द्वारा कहे गये ज्ञान या कथन के बारे में अविश्वास किया जा सकता है परन्तु ज्ञाता जिन तथ्यों का स्वय अनुभव करता है उनको वह अविश्वसनीय नहीं मान सकता। उदाहरणार्थ, एक बालक जब यह अनुभव करता है कि आग जलाने का कार्य करती है तो वह इस ज्ञान को विश्वसनीय रूप में ही स्वीकार करेगा क्योंकि उसने आग से जलने का अनुभव प्राप्त किया है।

 

फ्रेडरिक फ्रोबेल (Frobel)

फ्रोबेल
Frobel



    फ्रेडरिक फ्रोबेल का जन्म 21, अप्रैल, 1782 को दक्षिणी जर्मनी के एक गाँव में हुआ था। जब वह नौ महीने का ही था उसकी माता का देहान्त हो गया। पिता से बालक फ्रोबेल को उपेक्षा मिली। विमाता उससे घृणा करती थी। इससे फ्रोबेल प्रारम्भ से ही नितान्त एकाकी हो गया। फ्रोबेल पर इस एकाकीपन का प्रभाव पड़ा और वह आत्मनिष्ठ हो गया। वह प्रकृति के सान्निध्य में अपना समय व्यतीत करने लगा।
 
    इसके दो परिणाम हुए: पहला, उसमें अन्तदर्शन की क्षमता विकसित हो गई। दूसरा, जड़ और प्रकृति में भी उसे अपना स्वरूप दिखने लगा। इसी के आधार पर उसने ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।कुछ समय फ्रोबेल ने अपने मामा के साथ बिताये। इस दौरान उसे विद्यालय जाने का अवसर मिला पर शिक्षा में उसकी प्रगति असन्तोषजनक रही। पन्द्रह वर्ष की अवस्था में एक फोरेस्टर के अधीन कार्य सीखने का अवसर मिला पर    प्रकृति-प्रेम के अतिरिक्त वह कोई प्रशिक्षण नहीं ले सका। 
 
    सत्रह वर्ष की अवस्था में फ्रोबेल ने जेना विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया पर अपनी निर्धनता के कारण वह शिक्षा पूरी नहीं कर पाया। घर वापस आकर कृषि-कार्य में हाथ बटाँने लगा। 1802 में पिता की मृत्यु के बाद फ्रोबेल ने इधर-उधर भटकते हुए विभिन्न तरह की नौकरियाँ की पर वह सफल नहीं हुआ। अंततः फ्रेंकफर्ट में हेर ग्रूनर के निमन्त्रण पर एक नार्मल स्कूल में ड्राइंग का अध्यापक बन गया। 
 
    सन् 1808 में फ्रोबेल पेस्टोलॉजी की शिक्षा व्यवस्था के अवलोकन हेतु वरडेन पहुँचा। उसने वहाँ बच्चों के संदर्भ में दो बातों को गहराई से महसूस किया। पहला, बच्चों के आत्मभाव प्रकाशन हेतु संगीत आवश्यक है, तथा, दूसरा, बच्चों की ड्राइंग में विशेष रूचि होती है।फ्रोबेल की रूचि वैज्ञानिक सिद्धान्तों में बढ़ती जा रही थी। उसने गणित और खनिज विज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु पहले गोरिन्जन विश्वविद्यालय और बाद में बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। 
 
    बर्लिन में उन्होंने प्रख्यात विद्वान प्रोफेसर वीज के संरक्षण में गहन अध्ययन किया। नेपोलियन ने जब जर्मनी पर आक्रमण किया तो फ्रोबेल उसके विरूद्ध जर्मनी की सेना में भर्ती हुआ। 1814 ई0 में फ्रोबेल बर्लिन म्यूजियम का सहायक क्यूरेटर नियुक्त हुआ। वह खनिज-विज्ञान का अध्यापक नियुक्त हुआ।
 
    फ्रोबेल के जीवन का सर्वाधिक रचनात्मक काल की शुरूआत 1817 ई0 में होती है जब उसने अपने दो भतीजों एवं कुछ अन्य लड़को को लेकर कीलहाऊ में एक विद्यालय की स्थापना की। 
 
    यहीं पर 1826 ई0 में फ्रोबेल ने विल्हेमिन होफमिस्टर नामक सम्पन्न महिला से विवाह किया। इससे फ्रोबेल के सारे आर्थिक संकट समाप्त हो गए। कीलहाऊ में ही उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एडुकेशन ऑफ मैन’ की रचना की। इसके उपरान्त स्विटजरलैंड में फ्रोबेल ने कई संस्थाओं का संचालन किया। अब फ्रोबेल पूर्व विद्यालय शिक्षा में सुधार हेतु व्यावहारिक कार्य करना चाहता था। इस उद्देश्य से 1837 ई0 में जर्मनी के पहाड़ी क्षेत्र के ब्लैकनवर्ग नामक गाँव में प्रथम ‘किण्डरगार्टेन’ की स्थापना की। इसके उपरान्त फ्रोबेल जीवन पर्यन्त ‘किण्डरगार्टेन’ के आन्दोलन को आगे बढ़ाने में लगा रहा। अन्ततः 1852 में इस महान शिक्षाशास्त्री की मृत्यु हो गई।

फ्रेडरिक फ्रोबेल के दार्शनिक विचार  
 
दार्शनिक विचारधारा के विकास के इस बिन्दु पर फ्रोबेल के विचारों का प्रादुर्भाव हुआ। शैलिंग एवं हीगल के दर्शन के आधार पर फ्रोबेल ने अपना ‘एकता का सिद्धान्त’ का विकास किया। वह ‘एडुकेशन ऑफ मेन’ में लिखता है ‘‘यह एकता का सिद्धान्त बाह्य-प्रकृति एवं आत्म-प्रकृति में एक-सा ही व्यक्त है। जीवन भौतिक एवं आत्मन् के समन्वय का परिणाम है। बिना पदार्थ के आत्मन् आकारहीन है और बिना मनस् के पदार्थ प्राणहीन है।’’
 
फ्रोबेल पर हीगल के द्वन्द्वात्मक विचारों का भी प्रभाव दिखता है। फ्रोबेल कहते हैं ‘‘प्रत्येक सत्ता तभी प्रत्यक्ष होती है जब वह अपने से भिन्न सत्ता के साथ उपस्थित होती है और जब उस तत्व से उसकी समानता-असमानता स्पष्ट हो चुकी होती है।’’ फ्रोबेल पर जर्मन दार्शनिक के0सी0एफ0 क्राउस का भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। जिसने ज्ञान की विभिन्न विधियों एवं क्षेत्रों में समन्वय स्थापित किया। क्राउस प्रकृति एवं तर्क (विचार) दोनों में ही ईश्वर का दर्शन करता है।
 
विकास का सिद्धान्त
फ्रोबेल के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति विकास की पाँच भिन्न-भिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। ये हैं-
 
शैशव काल (जन्म से तीन वर्ष की अवधि)- इस काल में बच्चे के इन्द्रिय या संवेदी विकास पर जोर दिया जाना चाहिए। 
बाल्यकाल (तीन से पाँच वर्ष तक की अवधि)- इस काल में भाषा का विकास होता है। शरीर की जगह मस्तिष्क पर ध्यान दिया जाने लगता है। सभी वस्तुओं का सही नाम बच्चों को इस काल में बताया जाना चाहिए। साथ ही सही उच्चारण का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। 
कैशोर्य (छह से चैदह वर्ष तक की अवधि), 
तरूण (चैदह से अठारह वर्ष तक की कालखंड), तथा 
प्रौढ़ (अठारह वर्ष के बाद की अवधि)। प्रत्येक भावी स्तर का विकास बहुत हद तक पिछले स्तर के विकास पर निर्भर करता है।

फ्रेडरिक फ्रोबेल का शिक्षा-दर्शन 
फ्रोबेल इस सिद्धान्त पर विश्वास करते हैं कि सारी संभावनायें, क्षमतायें एवं शक्तियाँ बालक के अन्दर निहित है। शिक्षा व्यवस्था का कार्य विद्यार्थियों को उपयुक्त वातावरण एवं अवसर प्रदान करता है ताकि विद्यार्थी अन्तर्निहित संभावनाओं एवं क्षमताओं के अनुरूप अधिक से अधिक विकास कर सके। विकास वस्तुतः अन्दर से आरम्भ होता है। बाहर से इसे थोपा नहीं जा सकता है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में बालक को बाहर से उतना नहीं देना पड़ता है जितना अन्तर्निहित शक्तियों का प्रकाशन करना। बिना आवश्यकता अनुभव किए बालक शायद ही कुछ सीख सके। 
 
शिक्षा का उद्देश्य 
  • एकता या सामन्जस्य का बोध
  • व्यक्ति में आध्यात्मिक प्रकृति को जागृत करना
  • स्वतंत्रता एवं आन्तरिक संकल्प शक्ति का विकास
  • सामाजिक भावना का विकास
  • चरित्र निर्माण

शिक्षा की योजना 
    फ्रोबेल ने बच्चों की शिक्षा के लिए व्यापक योजना बनाई। अपनी शैक्षिक योजना में फ्रोबेल ने बच्चे की आत्म-क्रिया एवं खेल को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना।

शैक्षिक प्रक्रिया में क्रिया का स्थान 
फ्रोबेल ने शिक्षा में तीन प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख किया है:-
  • आवश्त्यात्मक या लयात्मक क्रियायें 
  • वस्तुओं पर आधारित क्रियायें 
  • कार्य एवं व्यवसाय 

खेल 
    फ्रोबेल खेल को बालक की शिक्षा का एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हिस्सा मानता है। फ्रोबेल ने खेल के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा ‘‘खेल मनुष्य के लिए, विशेषतः बालक के लिए उसके अन्तःजगत एवं बाह्य-जगत का दर्पण है और इस दर्पण की भीतर से आवश्यकता है। अतः यह जीवन एवं लगन-शक्ति को व्यक्त करने वाली प्रवृति है।’’ इस प्रकार मानव-शिक्षा के इतिहास में फ्रोबेल पहला व्यक्ति है जिसने खेल के शैक्षिक महत्व को समझा और इसे शिक्षा का माध्यम बना दिया। फ्रोबेल ने खेल को आत्मप्रेरित, आत्मनियन्त्रित एवं स्वचालित क्रिया माना। ‘उपहार’ भी खेल साम्रगी है। 

विद्यालयी पाठ्यक्रम 
    फ्रोबेल पाठ्यक्रम का विभाजन चार प्रमुख भागों में करते हैंः (अ) धर्म एवं धार्मिक शिक्षा (ब) प्राकृतिक विज्ञान एवं गणित (स) भाषा एवं (द) कला एवं कलात्मक वस्तु। इन विषयों के अध्ययन से छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास संभव हो सकता है। शिक्षा के इतिहास में फ्रोबेल पहला व्यक्ति था जिसने ‘क्रिया’ को पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण स्थान दिया।

किण्डरगार्टन
    ‘किण्डरगार्टन’ नाम फ्रोबेल के मस्तिष्क में 1840 ई0 में आया जब वह बसन्त ऋतु में एक दिन अपने मित्रों के साथ किलहाउ से बेन्कनड्रग जा रहा था। उसने एक पहाड़ी से रीने नदी की घाटी को देखा जो उसे एक अतिसुन्दर बगीचे की तरह मनमोहक लगी। वह चिल्ला उठा ‘‘मुझे मिल गया। मेरी संस्था का नाम किण्डरगार्टन होगा।’’ यद्यपि वास्तविक रूप में 1843 ई0 के पहले किण्डरगार्टन की स्थापना नहीं की गई पर उपर्युक्त घटना के आधार पर किण्डरगार्टन की स्थापना का वर्ष 1840 बताया जाता है।

शिक्षण-विधि 
  • खेल विधि 
  • आत्मक्रिया विधि 
  • स्वतंत्र एवं निरन्तर सीखने की विधि 
  • वस्तुओं से सीखने की विधि 

अध्यापक का कार्य  
    फ्रोबेल के अनुसार बालक की खेल प्रवृतियों का ठीक दिशा में संचालन किया जाना चाहिए। समुचित निर्देशन के आभाव में खेल एक उद्देश्यहीन क्रिया बनकर रह जाती है। खेल का उचित दिशा में संचालन में अध्यापकों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। 
 
    फ्रोबेल ने आन्तरिक विकास पर बहुत अधिक जोर दिया है। इससे बाह्य विकास की उपेक्षा हुई। वस्तुतः आन्तरिक एवं बाह्य दोनों पक्षों का ही समन्वित विकास होना चाहिए।
    किण्डरगार्टन के गीत, खेल उपहारों के प्रयोग में अनुकरण एवं निर्देश पर काफी जोर है। वस्तुतः बच्चों को स्वतः क्रिया करने का अवसर मिलना चाहिए।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986


  • 1948 में डॉ॰ राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के गठन के साथ ही भारत में शिक्षा-प्रणाली को व्यवस्थित करने का काम शुरू हो गया था।
  • 1952 में लक्षमणस्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग, तथा 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित भारतीय शिक्षा आयोग की अनुशंशाओं के आधार पर 1968 में शिक्षा नीति पर एक प्रस्ताव प्रकाशित किया गया जिसमें ‘राष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध, चरित्रवान तथा कार्यकुशल’ युवक-युवतियों को तैयार करने का लक्ष्य रखा गया।
  • मई 1986 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई, जो अब तक चल रही है। इस बीच राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति, तथा 1993 में प्रो. यशपाल समिति का गठन किया गया।
  • नई शिक्षा नीति 2020 भारत की शिक्षा नीति है जिसे भारत सरकार द्वारा 29 जुलाई 2020 को घोषित किया गया। सन 1986 में जारी हुई नई शिक्षा नीति के बाद भारत की शिक्षा नीति में यह पहला नया परिवर्तन है। यह नीति अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986
National Education Policy 1986 

  • राष्ट्र आर्थिक एवं तकनीकि विकास के दौर में उपलब्ध संसाधनों से अधिकतम लाभ उठाने तथा परिवर्तन का लाभ सभी वर्गाे तक पहुँचने के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। इस लक्ष्य को प्राप्त करने का एक मार्ग शिक्षा है इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने जनवरी 1985 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण करने की घोषणा की थी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के प्रावधान 
  • भारत सरकार ने 24 जुलाई 1968 को स्वतंत्र भारत की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की तथा इस पर अमल होना प्रारम्भ हो गया।
  • मार्च 1977 में केंद्र में जनता दल की सरकार बनी इस सरकार के बनते ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण हुआ तथा 1979 में इसे घोषित कर दिया गया। इस शिक्षा नीति को संसद में पास होने के बाद मई 1986 में इसे प्रकाशित किया गया। तथा इसकी कार्ययोजना को भी प्रकाशित किया गया। भारत  की राष्ट्रीय शिक्षा नीति1986 पहली नीति है जिसमें नीति के साथ साथ उसको पूरा करने की योजना भी प्रस्तुत की गयी।
  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति निर्माण की प्रक्रिया के दौरान भारत सरकार ने अगस्त 1985 में एक दस्तावेज -शिक्षा की चुनौती: नीति संबंधी परिप्रेक्ष्य जारी किया था। इस दस्तावेज को जारी करने का उद्देश्य शिक्षा नीति के संबंध में देशव्यापी विचार विमर्श को प्रोत्साहित करना था जिससे कि नई शिक्षा नीति के निर्माण के लिए पर्याप्त आधार तैयार हो सके तथा समाज के विभिन्न वर्ग अपने विचारों, माँगों तथा आवश्यकताओं को नई नीति के निर्माणकों के सम्मुख रख सके।
  • आशा के अनुरूप उस दस्तावेज पर संपूर्ण भारत में पर्याप्त विचार विमर्श हुआ तथा विभिन्न वर्गों, बौद्धिक सामाजिक, राजनैतिक, व्यावसायिक, प्रशासकीय आदि ने अपनी अपनी प्रतिक्रियाए व्यक्त की। मई 1986 में भारत सरकार ने शिक्षा नीति - 1986 का प्रारूप तैयार करके जारी कर दिया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 1986 को कुल 12 खंड़ों में बाँटा गया है जिनमें कुल 157 बिंदुओं मे अंतर्गत नई शिक्षा नीति को लिपीबद्ध किया गया है। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति का दस्तावेज 

  • राष्ट्रीय शिक्षा 1986 का दस्तावेज कुल 12 भागों में विभाजित है।
खण्ड एक -प्रस्तावना (introduction)
  • राष्ट्र में आर्थिक एवं तकनीकी विकास के लिए उपलब्ध संसाधनों से अधिक से अधिक लाभ सभी वर्गो तक पहुँचाने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए भारतीय शिक्षा आज ऐसी जगह आकर खड़ी है जहाँ पर देश की परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ है। देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही  है जिससे लोकतन्त्र के लक्ष्यों को प्राप्त करने में समस्या आ रही है। इसके अलावा भविष्य में अनेक समस्याओं का सामना करना होगा। नई चुनौतियों तथा सामाजिक आवश्यकताओं ने सरकार के लिए यह जरूरी कर दिया है कि वह एक नई शिक्षा नीति तैयार करे तथा उसे क्रियान्वित  करे।
खण्ड दो -शिक्षा का सार, भूमिका  (Essence of Education Introduction)
  • शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य के अन्दर मानसिक शारीरिक चारित्रिक, सांस्कृतिक, लोकतन्त्रीय गुणों का विकास होता है शिक्षा मनुष में स्वतन्त्र सोच तथा चिन्तन का विकास करती है। शिक्षा के द्वारा प्रजातन्त्रीय लक्ष्य दृ समानता,  स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और न्याय की प्राप्ति कर सकते हैं। यह आर्थिक विकास करने में सहायक है। शिक्षा के द्वारा वर्तमान और भविष्य का निर्माण कर सकते है इसलिए शिक्षा वास्तव में एक उत्तम साधन है।
खण्ड तीन-राष्ट्रीय प्रणाली (National System)
  • शिक्षा के द्वार सभी के लिए जाति, धर्म व लिंग में भेदभाव के बिना समान रूप से खुले हैं। शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली से तात्पर्य एक समान शिक्षा सरंचना से है सम्पूर्ण देश में 10+2+3 शिक्षा 10 वर्षीय शिक्षा में 5 वर्षीय प्राथमिक शिक्षा तथा 3 वर्षीय उच्च प्राथमिक शिक्षा और उसके बाद 2 वर्षीय हाईस्कूल शिक्षा की व्यवस्था होगी, 2 वर्षीय पर इण्टरमीडिएट शिक्षा तथा, 3 वर्षीय पर स्नातक शिक्षा प्रदान की जाएगी।
खण्ड चार- समानता के लिए शिक्षा (Education for Equality)
  • शिक्षा नीति में असमानताओं को दूर करके सभी के लिए शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराये जाएंगे। महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए शिक्षा का प्रयोग साधन के रूप में किया जाएगा। शिक्षण संस्थाओं में महिला विकास के कार्यक्रम शुरू कराए जाएंगे। जिन कारणों से बालिकायें अशिक्षित रह जाती है, सबसे पहले उन कारणों का समाधान किया जाएगा। निर्धन परिवारों के बच्चों को 14 वर्ष तक की अनिवार्य शिक्षा लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। अनुसूचित जातियों के लिए छात्रवृत्ति तथा छात्रावासों की व्यवस्था की जाएगी।अनुसूचित जातियों के लिए शैक्षिक सुविधाओं का विस्तार करने सम्बन्धी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगारकार्यक्रम तथा रोजगार गारण्टी कार्यक्रमों की व्यवस्था की जाएगी।






















 

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

कोठारी आयोग 1964-66 (Kothari Commission 1964-66)

 कोठारी आयोग 1964-66
Kothari Commission 1964-66


    14 जुलाई 1964 को अपने प्रस्ताव में भारत सरकार ने आयोग की नियुक्ति की इसे भारतीय शिक्षा आयोग(1964-66) कहते है। इस आयोग क अध्यक्ष प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो. डी. एस. कोठारी थे (दौलत सिंह कोठारी) उनके नाम पर इस आयोग को कोठारी कमीशन के नाम से भी जाना जाता है।
कोठारी आयोग की नियुक्ति के कारण 
    शिक्षा में प्रगति हेतु 1948 ई. राधाकृष्णन् आयोग व 1952 ई. में मुदालियर आयोग की स्थापना की गयी। इन आयोगों की संस्तुतियाँ आंशिक रूप से क्रियान्वित की जा सकी जिससे शिक्षा क्षेत्र में सुधार कम हुआ और दोष अधिक आ गए, अतः इन दोनो को दूर करने के लिए 1964 ई. मे एक अन्य शिक्षा आयोग की नियुक्ति की गई जिसके अध्यक्ष श्री. दौलतसिंह कोठारी थे और इन्ही के नाम पर इसे कोठारी आयोग के नाम से जाना गया। इस आयोग की नियुक्ति 4 जुलाई 1964 को की गई तथा गाँधी जयन्ती के दिन (2 अक्टूबर) को यह क्रियाशील हुआ। डाॅ. कोठारी उस समय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष थे।
कोठारी आयोग के सदस्य
अध्यक्ष:- प्रो डी. एस. कोठारी, विश्वविद्यालय अनुदान, नई दिल्ली।
सचिव:- श्री जे. पी. नायक, अध्यक्ष, शैक्षिक नियोजन प्रशासन एंव वित्त विभाग, गोखले राजनिति एवं अर्थशारूत्र संस्थान पूना।
सहसचिव:- श्री जे. एफ मेन्डूगल, सहायक निदेशक स्कूल और उच्च शिक्षा विभाग यूनेस्कों, पेरिस।
सदस्य:- 
  • श्री ए. आर. दाउद, कार्यावाहक निदेशक माध्यमिक शिक्षा प्रसार कार्यावाहक निदेशालय नई दिल्ली।
  • श्री एच. इलविन निदेशक, शिक्षा संस्थान, लन्दन विश्वविद्यालय लन्दन। 
  • श्री आर. ए. गोपालस्वामी, निदेशक इन्स्टीट्यूट ऑफ एप्लाई मैन-पावर रिसर्च न्यू दिल्ली।
  • प्रो. सतादोसी इहारा स्कूल ऑफ साइस एण्ड इंजीनियरिंग वासेडा यूनिवर्सिटी टोकियों (जापान)
  • डाॅ. वी. एस. झा, डायरेक्टर ऑफ काॅमनवेल्थ एजूकेशन लिया इसन यूनिट लन्दन (इग्लैण्ड)
  • श्री पी. एन कृपाल, शिक्षा सलाहकार एंव सचिव, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।
  • प्रो. एम. वी. माथुर, उप कुलपति राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।
  • डाॅ. बी. पी. पाल, डायरेक्टर, एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीटयूट, नई दिल्ली।
  • के. एस. पाणणिडकर, हैड ऑफ दि डिपार्टमेन्ट ऑफ एजूकेशन, कर्नाटक यूनिवर्सिटी, धाखाड।
  • प्रो. रोजर रिवेली, डायरेक्टर, सेन्टर फाॅर पापूलेशन स्टडीज, हारवार्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हैल्थ, हारवार्ड यूनीवर्सिटी, केम्ब्रिज, यू.एस.ए.।
  • डाॅ. के. जी. सेयदेन, डायरेक्टर, एशियन इनस्टीट्यूट ऑफ एजूकेशन प्लानिंग एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन, नई दिल्ली।
  • डाॅ. टी. सेन, उपकुलपति, जाधवपुर विश्वविद्यालय, कलकत्ता।
  • प्रो. एस. एस सुमोवस्की, प्रोफसर ऑफ फिजिक्स, मास्को यूनीवर्सिटी, मास्को (रूस)
  • एम. जी. थाॅमस इन्सपेक्टर जनरल ऑफ एजूकेशन, फ्रांस।
कोठारी आयोग की रिपोर्ट
आयोग ने अपने कार्य को पूरा करने के लिए 12 मुख्य कार्य दल तथा 7 सहायक कार्यदल बनाये इन कार्यदलों ने लगभग 100 दिन तक राष्ट्र क विभिन्न राज्यों के स्कूलों, काॅलेजो तथा विश्वविद्यालयों का भ्रमण किया तथा लगभग 9009 व्यक्तियों से साक्षात्कार किया आयोग ने 2400 से अधिक लिखित उत्तरों का विश्लेषण भी किया तथा इन सभी सूचनाओं क आधार पर 673 पृष्ठों का प्रतिवेदन तैयार किया जिसे 20 जून 1966 को भारत सरकार को समर्पित किया (रिपोर्ट पेश की) गया। आयोग ने अपने प्रतिवेदन मे शिक्षा के विभिन्न पक्षो पर सघन प्रकाश डाला तथा राष्ट्रीय उत्थान में शिक्षा के महत्वपूर्ण साधन के रूप में विकसित करने की दृष्टि से अनेक महत्नपूर्ण सुझाव दिये।
’’शिक्षा आयोग’’ को अपना प्रतिवेदन 31 मार्च सन् 1966 तक प्रस्तुत करने का आदेश दिया गया था। किन्तु कठिनाईयों के कारण, आयोग ने अपने प्रतिवेदन को निर्धारित तिथि से लगभग 3 माह पश्चात् अर्थात् 29 जून 1966 को भारत सरकार के तात्कालीन शिक्षामंत्री श्री एम. सी. छागला के समक्ष प्रस्तुत किया। लगभग 700 पृष्ठों का यह प्रतिवेदन तीन भागों में विभाजित है और इसका नाम है ’’शिक्षा एंव राष्ट्रीय प्रगति’’ (Educational & National Development)
कोठारी आयोग की सुझाव व सिफारिशें
1. पंचम पंचवर्षीय योजना पूर्ण होने तक निम्न माध्यमिक तथा प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क बनाया जाये।
2. प्राथमिक स्तर के बालकों को निःशुल्क पाठ्यपुस्तके उपलब्ध करायी जाये।
3. उच्च स्तर पर बुक बैंक की व्यवस्था की जाये।
4. प्रतिभा सम्पन्न शिक्षार्थियों को छात्रवृत्तियां दी जाये।
5. शिक्षकों की स्थिति, वेतन, प्रशिक्षण इत्यादि में सुधार किया जाये।
6. आदिवासियोें तथा पिछडंे वर्ग की शिक्षा में सुधार या विस्तार करने हेतु इन्हे छात्रवृत्तियाँ छात्रावास आदि की सुविधाएँ उपलब्ध करवायी जाये।
7. अपंग बालकों  के लिए प्रत्येक जिले में पृथक विद्यालय की स्थापना की जाये।
8. स्त्री व पुरूषों की शिक्षा के अन्तर को दूर किया जाये।
9़. प्रत्येक विद्यालय में राज्य विद्यालय शिक्षा परिषद् की स्थापना की जाये।
10. शिक्षा मंत्रालय में राष्ट्रीय विद्यालय शिक्षा परिषद् की स्थापना की जाये।
11. छात्राध्यापकों के लिए सार्थक और विशेष पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाये।
12. सरकारी विद्यालयों के समान गैर-सरकारी विद्यालयों की स्थिति मे सुधार किया जाये।
13. स्त्रियों के लिए शिक्षा व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारम्भ किए जाये।
14. विद्यालय मेे प्रचलित पाठ्यक्रम क दोषों को समाप्त किया जाये।
15. प्रशिक्षण अवधि दो वर्ष की होंनी चाहिए।
16. शिक्षा के सभी स्तरों पर सामान्य शिक्षा के अनिवार्य अंग के रूप मे समाज सेवा और कार्य अनुभव इत्सादि सम्मिलित होने चाहिए।
17. नैतिक शिक्षा तथा सामाजिक उत्तर दायित्व की भावना उत्पन्न करने पर बल दिए जाए।
18. माध्यमिक शिक्षा को व्यावसायिक बनाया जावे।
19. उन्नत अध्ययन केन्द्र (Center of Adanced studies) को अधिक सुदृढ बनाया जाये और बडे़ विश्वविद्यालयों में एक ऐसी संस्था खोली जाए जो उच्चतम अन्तर्राष्ट्रीय मानको को प्राप्त करने का उद्देश्य रखे।
20. विद्यालय के लिए अध्यापको के प्रशिक्षण तथा श्रेणी पर विशेष बल दिया जाये।
21. शिक्षा के पुननिमार्ण मे कृषि में अनुसंधान तथा इससे सम्बन्धित विज्ञानांे को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
कोठारी आयोग के क्षेत्र 
1. शिक्षा के राष्ट्रीय उद्देश्य/लक्ष्य 
2. शिक्षा की संरचना 
3. अध्यापको की दशा 
4. अध्यापक प्रशिक्षण 
5. नामाकंन तथा मानव शक्ति 
6. शैक्षिक समानता
7. स्कूल शिक्षा का विस्तार
8. स्कूल पाठ्यक्रम
9. स्कूल शिक्षा पद्धति
10. स्कूल निरीक्षण
11. उच्च शिक्षा के उद्देश्य
12. उच्च शिक्षा में प्रवेश व कार्यक्रम
13. विश्वविद्यालयों की व्यवस्थाएँ
14. कृषि शिक्षा
15. व्यवसायिक, तकनीकी तथा इंजनियरिंग शिक्षा
16. विज्ञान शिक्षा तथा अनुसंधान
17. प्रौढ़ शिक्षा
18. शैक्षिक योजना प्रशासन
19. शैक्षिक अर्थव्यवस्था
कोठारी आयोग का मूल्यांकन 
शिक्षा आयोग के मूल्यांकन की दो कसौटियाँ हो सकती है-
1. आयोग के गुणों को परखना
2. आयोग के दोषों का विश्लेषण करना
1. जन-शिक्षा प्रचार व प्रसार के लिए व्यावहारिक शिक्षा का स्वरूप प्रस्तुत करना।
2. वैज्ञानिक प्रयोगों एवं अनुसन्धानों को शिक्षा के क्षेत्र में उपर्युक्त स्थान प्रदान करना।
3. शिक्षा के सर्वागिण पक्षों में सन्तुलित विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करना तथा उसके पुनर्संगठन सम्बन्धी ठोस सुझाव प्रस्तुत करना।
4. शिक्षा पर और अधिक धन व्यय करने की सिफारिश करना।
कोठारी आयोग के गुण

1. जन-शिक्षा प्रचार व प्रसार के लिए व्यावहारिक शिक्षा का स्वरूप प्रस्तुत करना।
2. वैज्ञानिक प्रयोगों एवं अनुसन्धानों को शिक्षा के क्षेत्र में उपर्युक्त स्थान प्रदान करना।
3. शिक्षा के सर्वागिण पक्षों में सन्तुलित विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करना तथा उसके पुनर्संगठन सम्बन्धी ठोस सुझाव प्रस्तुत करना।
4. शिक्षा पर और अधिक धन व्यय करने की सिफारिश करना।
5. सभी छात्रों को प्रजातान्त्रिक समानता के अवसर प्रदान करने के लिए आवश्यक  सहायता प्रदान करना।
6. संवैधानिक शिक्षा के लक्ष्यों की पूर्ति हेतु ठोस कदम उठाना।
7. माध्यमिक शिक्षा को पूर्ण व्यवसायोन्मुखी बनाकर उच्च शिक्षा की गुणवता में वृद्धि  करना।
8. शिक्षा के सभी स्तरों के लिए अनुकूल, सन्तुलित पाठ्यक्रमों की रूपरेखा प्रस्तुत करना।

कोठारी आयोग के दोष

1. शिक्षा आयोग के प्रयासों के फलस्वरूप बेसिक, शिक्षा का स्वरूप समाप्त हो गया।
2. अंग्रेजी भाषा पर अतिक्ति बल देने से भारतीय भाषाओं का विकास अवरूद्ध हो गया।
3. संस्कृति अध्ययन की पूर्ण उपेक्षा की गयी।
4. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की शिक्षा पर अनावश्यक बल देने से बालकों का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास अवरूद्ध हो गया।
5. प्रारम्भिक शिक्षा के आधार को मजबूत बनाने का सार्थक प्रयास नहीं किया गया।
6. शिक्षकों को अपेक्षित सुरक्षा प्रदान करने में शिक्षा आयोग पूर्ण असफल रहा।
7. अनेक महत्वपूर्ण सुझावों को धन के अभाव में क्रियान्वित नहीं किया जा सकती अतः शिक्षा की यथास्थिति बनी रही।
8. इस आयोग के अनेक विदेशी एवं देशी सदस्यों ने आयोग के कार्य मंे उपेक्षा भाव का प्रदर्शन किया था।






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